Sunday 18 January 2015

दक्षिणा को अलग कर दें तो विरले ही कथावाचक दिखेंगे


संसार में आसक्ति को राग कहते हैं और भगवान् में उसे अनुराग कहते हैं । विद्या, बुद्धि, वैभव आदि अनन्त जन्मों से हमें मिलते आये । पर जन्ममरण का चक्र न छूटा । यदि प्रेमा भक्ति अथवा आत्मज्ञान हुआ होता तो तब यह चक्र अवश्य टूटा होता ।
आसक्ति यदि राष्ट्र में हो, शास्त्र और सदाचार में हो तो ऐसा प्राणी शीघ्र ही श्रवण मनन तथा निदिध्यासन से भगवत्कृपा का अधिकारी बन जाता है । प्रभु प्रसन्न होकर उसे आत्मसाक्षात्कार करा देते हैं--
"प्रीतो देवः स्वात्मानं दर्शयति, अवंचनरसत्वात् प्रेम्णः।।"
ऐसा ही प्राणी संसार का कल्याण कर सकता है । संसार में वैराग्यवान् महापुरुष यदि न अवतरित हुए होते तो आज न शास्त्र रहते, न सदाचार । न ही भारतवर्ष की अनुपम गरिमा ।
वैदिक सनातन धर्म का पालन कैसे करना चाहिए ? जननी जन्मभूमि का कितना गौरव है-इसे हमारे शास्त्रों और पूर्वजों ने सिखाया है ।
इश्लाम,इशाई आदि धर्म का पालन नहीं अपितु प्रचार करना सिखाते हैं । इनके पुरखे तलवार तथा व्यापार को अपने अपने धर्मप्रचार का साधन बनाये । पर हमारे पूर्वज सदाचार एवं स्वाध्याय से धर्म का पालन सिखाये ।
इश्लाम आदि न कोई धर्म था, न है, और न रहेगा । टीवी चैनलों से धर्म का प्रचार नहीं होता । बल्कि लोग 
गुमराह किये जाते हैं । आज चैनलों में अपने प्रचार को ही यदि कोई धर्म का प्रचार मानने की भूल कर बैठा हो तो उसे कौन समझाये ।
जहाँ कोई आडम्बर न हो मन्दिर मस्जिद आदि न हों - ऐसे स्थलों पर विना स्वार्थ के किसी को उपदेश देने वाला ही टीवी चैनलों पर जाकर जनसमूह के मार्ग को प्रकाशित कर सकता है ।
यदि कथाओं से दक्षिणा को अलग कर दें तो विरले ही कथावाचक दिखेंगे ।
आज कथा को लोग जमाते हैं । भीड़ कैसे बढ़ेगी ? चढ़ावा अधिक किस तरह आयेगा ? - इसका जो भी उपाय है उसे जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ते ।
आज वक़्ता की कुशलता का मापदण्ड भीड़ है । अब भीड़ को जो अच्छा लगे कथा के नाम पर सुनाइये । एक महिला प्रवचनकर्त्री ने मंच पर कहा कि जब व्यास जी घर छोड़कर जंगल जाने लगे तो उनकी पत्नी उन्हें रोकते हुए कह रही है --
"घर में रहो बालम लूटो मजा ।"
मुझे लोगों ने कहा कि यह देखिये -कैसा प्रवचन हो रहा है !!! मैं दंग रह गया ।
अभिप्राय इतना ही है कि हमें संसार को सुधारने का ठेका पहले नहीं लेना चाहिए अपितु पहले अपने को सुधारना है । चंदा लगाकर कथा करवाने की अपेक्षा महापुरुषों के चरणों में बैठकर सत्संग करना चाहिए ।
जो ज्ञानवृद्ध हों उनके समीप प्रतिदिन कम से कम आधा घंटा बैठकर कुछ सीखना चाहिए । ऐसा सम्भव न होने पर किसी सद्ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहिए जिसे सुनकर अनेक लोगों को लाभ मिल सके ।

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