Friday 7 November 2014

भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं

जिस व्यक्ति को "सांख्य-योग" अच्छा लगता है वह पहली विधि को अपनाता है, और जिस व्यक्ति को "भक्ति-योग" अच्छा लगता है वह दूसरी विधि को अपनाता है। जो व्यक्ति इन दोनों विधियों के अतिरिक्त बुद्धि के द्वारा जो भी कुछ करता है, वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं हो पाता है, इन ऋण को चुकाने के लिये ही उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है। 
इन सभी अवस्था में कर्म तो करना ही पड़ता है और मनुष्य कर्म करने मे सदैव स्वतंत्र होता है, भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, क्योंकि किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप करने का विधि का विधान नहीं है।
इसलिये मनुष्य को न तो किसी कर्म में हस्तक्षेप करना चाहिये और न ही किसी के हस्तक्षेप करने से विचलित होना चाहिये, इस प्रकार अपनी स्थिति पर दृड़ रहने का अभ्यास करना चाहिये। 
जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा करता है, तब बुद्धि के द्वारा सत्य को जानकर सत्संग करने लगता है तो उस व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है, तब उसके मन में उस सत्य को ही पाने की लालसा उत्पन्न होती है। 
जब यह लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब मन में शुद्ध-भाव की उत्पत्ति होती है, तब उस व्यक्ति को सर्वज्ञ सत्य की अनुभूति होती है, यह शुद्ध-भाव मक्खन के समान अति कोमल, अति निर्मल होता है। 
बस यही मक्खन परम-सत्य स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, इस शुद्ध-भाव रूपी मक्खन को चुराने के लिये भगवान स्वयं आते हैं। 
यही "कर्म-योग" का सम्पूर्ण सार है। यही मनुष्य जीवन का सार है। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन की अन्तिम उपलब्धि है। यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि है। इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन ही प्राप्त होती है। 

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