Sunday 3 August 2014

यहाँ अब हमारा कोई स्थान नहीं

प्राचीन भारत के ऋषियों ने देखा की आगे की यात्रा रूक न जाय, मरे हुए देह के इर्द गिर्द उसको भटकना न पड़े इसका उपाय करना चाहिए। अतः जल्दी से जल्दी मुर्द को अग्नि दाह कर दो । देह को इस प्रकार भस्मीभूत किया जाता है ताकि इसमें से निकले हुए जीव की देह में आस्था खत्म हो जाय। वह अपनी आगे की मंगलमय यात्रा पर चल पड़े। देह जल जाने के बाद भी जहाँ वह मरा है उस माहौल में मंडराता रहे तो ऋषियों ने तीसरा दिन मनाने की व्यवस्था की।
मृत्यु के बाद तीसरे दिन सब लोग इकट्ठे होते हैं। थोड़ी देर उसके बारे में बातचीत हो जाती है और उसे आखिरी विदा दे देते हैं। अगर वहाँ जीव मंडराता है तो देख लेता है कि, 'सम्बन्धियों ने तो पूरा सम्बन्धविच्छेद कर दिया है। यहाँ अब हमारा कोई स्थान नहीं। चलो आगे....।' उसकी आगे की यात्रा शुरू हो जाती है।
फिर बारहवाँ दिन मनाया जाता है, पिण्डदान किया जाता है।
श्राद्ध में एक बात का ध्यान रखना चाहिए। श्राद्ध करते समय आँसू नहीं बहने चाहिए, अन्यथा श्राद्ध प्रेतों को प्राप्त हो जाता है। श्राद्ध के प्रसंग में किसी बड़े लोगों को आमंत्रित नहीं करना चाहिए। उनकी खुशामद में, सूक्ष्म रूप में आगन्तुक पितरों का अनादर हो जाता है।
श्राद्ध करते समय भगवद् गीता के सातवें अध्याय का माहात्म्य पढ़कर पाठ करना चाहिए। उसका फल मृतक आत्मा को अर्पण करना चाहिए।
एक श्राद्ध यह होता है कि हमारे मरने के बाद हमारे बेटे करें। दूसरा श्राद्ध संन्यासियों का होता है जो जीते जी अपनी षोडशी कर लेते हैं।
हम चाहते हैं कि आप साधक लोग भी जीते जी अपनी षोडशी कर डालो। जीते जी मर जाओ एक बार।

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