Wednesday 13 August 2014

ब्रह्मा जी ने शिव के आदेश से विलक्षण सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी।

शिव महापुराण के अनुसार इस पृथ्वी पर
जो कुछ भी दिखाई देता है, वह
सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्गुण, निर्विकार
तथा सनातन ब्रह्मस्वरूप ही है। अपने
कैवल्य (अकेला) भाव में रमण करने वाले
अद्वितीय परमात्मा में जब एक से दो बनने
की इच्छा हुई, तो वही सगुणरूप में ‘शिव’
कहलाने लगा। शिव ही पुरुष और स्त्री, इन
दो हिस्सों में प्रकट हुए और उस पुरुष भाग
को शिव तथा स्त्रीभाग को ‘शक्ति’
कहा गया। उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूप शिव
और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए स्वभाववश
प्रकृति और पुरुषरूपी चेतन की सृष्टि की।
प्रकृति और पुरुष सृष्टिकर्त्ता अपने माता-
पिता को न देखते हुए संशय में पड़ गये। उस
समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म
की आकाशवाणी सुनाई पड़ी– ‘तुम
दोनों को तपस्या करनी चाहिए, जिससे
कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार
होगा।’ उसके बाद भगवान शिव ने
तप:स्थली के रूप में तेजोमय पाँच कोस के शुभ
और सुन्दर एक नगर का निर्माण किया,
जो उनका ही साक्षात रूप था। उसके बाद
उन्होंने उस नगर को प्रकृति और पुरुष के
पास भेजा, जो उनके समीप पहुँच कर आकाश
में ही स्थित हो गया। तब उस पुरुष
(श्री हरि) ने उस नगर में भगवान शिव
का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से
वर्षों तपस्या की। तपस्या में श्रम होने के
कारण श्री हरि (पुरुष) के शरीर से श्वेतजल
की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं, जिनसे सम्पूर्ण
आकाश भर गया। वहाँ उसके अतिरकित कुछ
भी दिखाई नहीं देता था। उसके बाद
भगवान विष्णु (श्री हरि) मन ही मन
विचार करने लगे कि यह कैसी विचित्र
वस्तु दिखाई देती है। उस आश्चर्यमय दृश्य
को देखते हुए जब उन्होंने अपना सिर
हिलाया, तो उनके एक कान से
मणि खिसककर गिर पड़ी। मणि के गिरने से
वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से
प्रसिद्ध हो गया।
उस महान जलराशि में जब पंचक्रोशी डूबने
लगी, तब निर्गुण निर्विकार भगवान शिव
ने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूल पर धारण कर
लिया। तदनन्तर विष्णु (श्रीहरि)
अपनी पत्नी (प्रकृति) के साथ
वहीं सो गये। उनकी नाभि से एक कमल
प्रकट हुआ, जिससे
ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कमल से
ब्रह्मा जी की उत्पत्ति में भी निराकार
शिव का निर्देश ही कारण था। उसके बाद
ब्रह्मा जी ने शिव के आदेश से विलक्षण
सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी।
ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड का विस्तार
(विभाजन) चौदह भुवनों में किया,
जबकि ब्रह्माण्ड का क्षेत्रफल पचास
करोड़ योजन बताया गया है। भगवान शिव
ने विचार किया कि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत
कर्मपाश (कर्बन्धन) में फँसे प्राणी मुझे कैसे
प्राप्त हो सकेंगे? उस प्रकार विचार करते
हुए उन्होंने पंचक्रोशी को अपने त्रिशूल से
उतार कर इस जगत में छोड़ दिया।
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विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
काशी में स्वयं परमेश्वर ने ही अविमुक्त
लिंग की स्थापना की थी, इसलिए उन्होंने
अपने अंशभूत हर (शिव) को यह निर्देश
दिया कि तुम्हें उस क्षेत्र
का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। यह
पंचक्रोशी लोक का कल्याण करने वाली,
कर्मबन्धनों को नष्ट करने वाली, ज्ञान
प्रकाश करने वाली तथा प्राणियों के लिए
मोक्षदायिनी है।
यद्यपि ऐसा बताया गया है
कि ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा हो जाने
पर इस जगत् का प्रलय हो जाता है, फिर
भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश
नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान
परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं।
ब्रह्मा जी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं,
उस समय भगवान शिव काशी को पुन: भूतल
पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण
(नष्ट) करने के कारण ही उस क्षेत्र का नाम
‘काशी’ है, जहाँ अविमुक्तेश्वरलिंग
हमेशा विराजमान रहता है। संसार में
जिसको कहीं गति नहीं मिलती है, उसे
वाराणसी में गति मिलती है।
महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं के
दुष्फल का विनाश करने वाली है। भगवान
शंकर की यह प्रिय नगरी समानरूप से भोग
ओर मोक्ष को प्रदान करती है।
कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात
कैलासपति शिव अन्दर से
सतोगुणी तथा बाहर से तमोगुणी कहलाते
हैं। यद्यपि वे निर्गुण हैं, किन्तु जब सगुण रूप
में प्रकट होते हैं, तो ‘शिव’ कहलाते हैं। रुद्र
ने पुन: पुन: प्रणाम करके निर्गुण शिव से
कहा– ‘विश्वनाथ’ महेश्वर! निस्सन्देह मैं
आपका ही हूँ। मुझ आत्मज (पुत्र) पर आप
कृपा कीजिए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ,
आप लोककल्याण की कामना से
जीवों का उद्धार करने के लिए
यहीं विराजमान हों।’ इसी प्रकार स्वयं
अविमुक्त क्षेत्र ने भी शंकर जी से
प्रार्थना की है। उसने कहा– ‘देवाधिदेव’
महादेव वास्तव में आप ही तीनों लोकों के
स्वामी हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदि के
द्वारा पूजनीय हैं। आप
काशीपुरी को अपनी राजधानी के रूप में
स्वीकार करें। मैं यहाँ स्थिर भाव से
बैठा हुआ सदा आपका ध्यान करता रहूँगा।
सदाशिव! आप उमा सहित
यहाँ सदा विराजमान रहें और अपने
भक्तों का कार्य सिद्ध करते हुए समस्त
जीवों के संसार सागर से पार करें। इस
प्रकार भगवान शिव अपने गणों सहित
काशी में विराजमान हो गये। तभी से
काशी पुरी सर्वश्रेष्ठ हो गई।

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