Thursday 28 August 2014

उस परमपिता का यही संदेश है।

परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की, तो धरती पर उसने कहीं भी सीमाएं नहीं बनाई, परंतु अफसोस है कि फिर भी मनुष्य ने कागज के नक्शे बनाकर समस्त मानव जाति को भिन्न-भिन्न सीमाओं और संप्रदायों में बांट रखा है। आज आवश्यकता है तो यह जानने और समझने की कि मानव धर्म के महासागर में कहीं भी गोता लगाओ, उसका स्वाद एक जैसा ही होगा। इस सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन में हम भूल गए कि हम सब एक ही धागे से बंधे हुए हैं। यह धागा है-केवल इंसानियत का और प्रेम का। बहती हुई नदियां, लहराता पवन और हमारी यह पावन धरा-सब कुछ ईश्वर की अनमोल देन है। 1 आज आवश्यकता है तो पुजारी बनने की, उस मानवता के प्रति, जो आज हमारे बीच धड़कन बनकर धड़क रही है। हमारे देश की परंपरा ने हमेशा ही भावना, सद्भावना और प्रेममय वातावरण का निर्माण किया है। आज भी भारत महान है, क्योंकि इसकी संस्कृति और सभ्यता सदियों से शांति और प्रेम की पोषक रही हैं। शांति और प्रेम के पुजारी हमारे राष्ट्र ने हमेशा ही ऐसे बीज बोए हैं, जिनसे प्रेम के फूल मुस्कराते रहे हैं। उन फूलों से ही शांति की अनवरत सुगंध बहती रही है। हमें यह भी जानना चाहिए कि प्रेम और आनंद ही हमारी अनुभूतियों का संसार है। इसी से हमने समस्त विश्व को आलोकित किया है। हमारे जीवन का लक्ष्य इस परम अनुभूति को पाना है। परम-पिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की थी, तो उसने मनुष्य को हर प्रकार की आध्यात्मिक और भौतिक संपदा से संपन्न किया था और आनंद की शक्ति से लैस किया था। सांसारिक संपदाओं में मनुष्य इतना उलझ गया है कि उसने मानवीय संवेदनाओं पर प्रहार करना शुरू कर दिया। जरा सोचिए! क्या उस परमपिता ने हमें यही शिक्षा दी है? क्या जीवन जीने का यही तरीका है? क्या सिर्फ शक्तिशाली को जिंदा रहना होगा और कमजोर को मरना होगा? अच्छा तो तब होगा, जब हम हर द्वेष, दुराव व मतभेद को मिटाकर नए युग में नई चेतना के सूत्रपात का संकल्प लें। जहां कोई लड़ाई न हो, अगर हो तो मात्र प्रेम, सौहार्द्र, एकता और भाईचारा। उस परमपिता का यही संदेश है।

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