Thursday 7 August 2014

कर्तव्य समझकर करोगे तो ठीक है

'कर्म स्वयं जड़ होते हैं.... कर्ता को उसकी भावना के अनुसार फल मिलता है....' समझना .....कर्मों को उसकी भावना के अनुसार फल मिलता है...' ऐसा समझना कर्मों को अखिल रूप से, सम्पूर्ण रूप से जानना हो गया।
कर्म को पता नहीं कि वह कर्म है। शरीर को पता नहीं कि वह शरीर है। मकान को पता नहीं कि वह मकान है। यज्ञ को पता नहीं कि वह यज्ञ है। क्यों? क्योंकि सब जड़ हैं लेकिन कर्ता जिस भावना, जिस विधि से जो-जो कार्य करता है, उसे वैसा-वैसा फल मिलता है।
किसी दुष्ट ने आपको चाकू दिखा दिया तो आप थाने में उसके खिलाफ शिकायत करते हैं। कोई आपको केवल मारने की धमकी देता है तब भी आप उसके विरुद्ध शिकायत करते हैं। लेकिन डॉक्टर न आपको धमकी देता है, न चाकू दिखाता है बल्कि चाकू से आपके शरीर की काट-छाँट करता है, फिर भी आप उसे 'फीस' देते हैं क्यों? क्योंकि उसका उद्देश्य अच्छा था। उद्देश्य था मरीज को ठीक करना, न कि बदला लेना। ऐसे ही आप भी अपने कर्मों का उद्देश्य बदल दो।
आप भोजन बनाओ लेकिन मजा लेने के लिए नहीं, बल्कि ठाकुरजी को प्रसन्न करने के लिए बनाओ। परिवार के लिए, पति के लिए, बच्चों के लिए भोजन बनाओगी तो वह आपका व्यवहारिक कर्तव्य हो जायेगा लेकिन 'परिवारवालों की, पति की और बच्चों की गहराई में मेरा परमेश्वर है...' ऐसा समझकर परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए भोजन बनाओगी तो वह बंदगी हो जायेगा, पूजा हो जायेगा, मुक्ति दिलानेवाला हो जायेगा।
वस्त्र पहनो तो शरीर की रक्षा के लिए, मर्यादा की रक्षा के लिए पहनो। यदि मजा लेने के लिए, फैशन के लिए वस्त्र पहनोगे, आवारा होकर घूमते फिरोगे तो वस्त्र पहनने का कर्म भी बंधनकारक हो जायेगा।
इसी प्रकार बेटे को खिलाया-पिलाया, पढ़ाया-लिखाया... यह तो ठीक है। लेकिन 'बड़ा होकर बेटा मुझे सुख देगा...' ऐसा भाव रखोगे तो यह आपके लिए बंधन हो जायेगा।
सुख का आश्रय न लो। कर्म तो करो... कर्तव्य समझकर करोगे तो ठीक है लेकिन ईश्वर की प्रीति के लिए कर्म करोगे तो कर्म, कर्म न रहेगा, साधना हो जायेगा, पूजा हो जायेगा। — 

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