Sunday 10 August 2014

एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि

कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 

कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 

कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 

माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 

मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 

हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 

काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 

पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 

आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 

कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 

कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 

मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 

मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 

एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 

कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 

जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 

बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 

कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 

नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 

उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 

कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 

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