Tuesday 5 August 2014

यह प्रेम की कौन सी भाषा है

कहते हैं कि बालक, भगवान का रुप होता है; क्योंकि वह सहज, सरल, नि:स्वार्थी, सदैव प्रसन्नचित्त और अपने माता-पिता के आश्रित रहता है, उसका रुठना भी क्षणिक ही होता है, आप उसे डाँट दो, हल्की सी चपत भी लगा दो पर वह आपको नहीं छोड़ता, न ही उस क्रिया को याद ही रखता है। जो बीत गया, सो बीत गया, आगे ही देखना है, कहीं भी कर्ता नहीं है, कुछ भी करे तो अभिमान नहीं है, फ़ूल कर कुप्पा होकर कभी किसी से नहीं कहता कि आज "मैं" अपने बूते दो कदम चला। आप उसे हवा में उछाल दो, वह हँसता है क्योंकि उसे विश्वास है कि मेरा पिता मुझे अपनी स्नेहासिक्त बाँहों में संभाल लेगा। कैसा निच्छल प्रेम ! कैसा अगाध विश्वास ! उसे तनिक भी संदेह नहीं है कि नीचे गिरते समय यदि पिता ने न पकड़ा तो क्या होगा ? वह जानता भी नहीं है कि ऐसा हो भी सकता है, वह जानना भी नहीं चाहता, वरन उसे पूर्ण विश्वास है कि यह अघटन कभी भी घटित हो ही नहीं सकता। आप उसे बनावटी क्रोध से देखो, कहते हैं कि बालक, भगवान का रुप होता है; क्योंकि वह सहज, सरल, नि:स्वार्थी, सदैव प्रसन्नचित्त और अपने माता-पिता के आश्रित रहता है, उसका रुठना भी क्षणिक ही होता है, आप उसे डाँट दो, हल्की सी चपत भी लगा दो पर वह आपको नहीं छोड़ता, न ही उस क्रिया को याद ही रखता है। जो बीत गया, सो बीत गया, आगे ही देखना है, कहीं भी कर्ता नहीं है, कुछ भी करे तो अभिमान नहीं है, फ़ूल कर कुप्पा होकर कभी किसी से नहीं कहता कि आज "मैं" अपने बूते दो कदम चला। आप उसे हवा में उछाल दो, वह हँसता है क्योंकि उसे विश्वास है कि मेरा पिता मुझे अपनी स्नेहासिक्त बाँहों में संभाल लेगा। कैसा निच्छल प्रेम ! कैसा अगाध विश्वास ! उसे तनिक भी संदेह नहीं है कि नीचे गिरते समय यदि पिता ने न पकड़ा तो क्या होगा ? वह जानता भी नहीं है कि ऐसा हो भी सकता है, वह जानना भी नहीं चाहता, वरन उसे पूर्ण विश्वास है कि यह अघटन कभी भी घटित हो ही नहीं सकता। आप उसे बनावटी क्रोध से देखो, वह मुस्कराता है, एकटक देखता है कि यह प्रेम की कौन सी भाषा है? प्रेम और विश्वास के अतिरिक्त वह कुछ जानता ही नहीं। उसके भविष्य के निर्णय कौन लेगा, उसे इससे भी कोई सरोकार नहीं। वह तो आश्रित है, उसकी सारी जिम्मेदारी उसके माता-पिता की ही बनती है, उन्हीं पर दायित्व है कि वह प्रतिपल उसके बारे में सोचें, प्रतिपल उसके सामने उपस्थित रहें क्योंकि वह इतना भोला है कि अपना भला-बुरा भी नहीं जानता, प्रतिपल अपने स्नेह से दुलराते रहें, पूछते रहें कि बता, तुझे क्या चाहिये ? और बच्चा कुछ नहीं कहता केवल मुस्कराकर मौन दौड़ा-दौड़ा, अपने माता-पिता की बाँहों में समा जाता है, मानो कह रहा हो, तुम्हारे अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। माथे को चूमकर अंक में भर लेते हैं माता-पिता ! मेरा लाड़ला ! मेरा बच्चा !!, एकटक देखता है कि यह प्रेम की कौन सी भाषा है? प्रेम और विश्वास के अतिरिक्त वह कुछ जानता ही नहीं। उसके भविष्य के निर्णय कौन लेगा, उसे इससे भी कोई सरोकार नहीं। वह तो आश्रित है, उसकी सारी जिम्मेदारी उसके माता-पिता की ही बनती है, उन्हीं पर दायित्व है कि वह प्रतिपल उसके बारे में सोचें, प्रतिपल उसके सामने उपस्थित रहें क्योंकि वह इतना भोला है कि अपना भला-बुरा भी नहीं जानता, प्रतिपल अपने स्नेह से दुलराते रहें, पूछते रहें कि बता, तुझे क्या चाहिये ? और बच्चा कुछ नहीं कहता केवल मुस्कराकर मौन दौड़ा-दौड़ा, अपने माता-पिता की बाँहों में समा जाता है, मानो कह रहा हो, तुम्हारे अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। माथे को चूमकर अंक में भर लेते हैं माता-पिता ! मेरा लाड़ला ! मेरा बच्चा !!

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