Wednesday 1 October 2014

प्रत्येक व्यक्ति अपने ही जगत में रहता है

पहली बात, हमें वही दिखता है जो हमारी वासना में छिपा होता है। जो मौजूद है, जरूरी नहीं कि हमें दिखे। हमारी आंख उसी को देख लेती है, जिसे हमारी वासना चाहती है। देखने में भी चुनाव है, सुनने में भी चुनाव है। हम वही सुन लेते हैं जो सुनना चाहते हैं। जो हम नहीं सुनना चाहते हैं, वह हमारे कानों से चूक जाता है। और जो हम नहीं देखना चाहते, उसे हमारी आंखे नहीं देख पातीं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने ही जगत में रहता है, अपने ही वासना के जगत में।

पागलखाने में जाएं, अकेला आदमी बात कर रहा है किसी से। वह जिससे बात कर रहा है वह आपके लिए नहीं है, उसके लिए पूरी तरह है। वह जवाब भी पा रहा है, वह झगडू भी सकता है। और उसके लिए उस व्यक्ति की मौजूदगी में जरा भी संदेह नहीं है। वह व्यक्ति उसने खुद ही निर्मित किया है। किसी प्रबल कामना के वश में, वह कल्पना प्रगाढ़ हो गई है।

तो इस जगत में दो घटनाएं घट रही हैं। लोग उन चीजों को देख रहे हैं, जो नहीं हैं। और उन चीजों को चूक रहे हैं, जो हैं। यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है।

अगर आपको परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, तो इससे केवल एक ही बात पता चलती है कि उसकी प्यास आपके भीतर नहीं है। अन्यथा परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और जिस दिन प्यास होगी, उस दिन सब चीजें क्षीण पड़ जाएंगी। और सभी चीजें पारदर्शी हो जाएंगी। और उनके भीतर परमात्मा का ही दर्शन शुरू हो जाएगा। वृक्ष तब भी दिखाई पड़ेगा, लेकिन बस परमात्मा का एक आकार। आकाश में बदलिया तब भी बहेंगी, चलेंगी, लेकिन बस परमात्मा का एक रूप। चारों तरफ व्यक्ति भी होंगे—पत्नी होगी, पति होंगे, बच्चे होंगे, मित्र होंगे—लेकिन बस परमात्मा की अनेक छबियां हैं, उसके प्रतिबिंब। वह प्रमुख हो जाएगा। वह केंद्र पर हो जाएगा। और सभी उसकी छायाएं हो जाएंगी। सभी उसकी प्रतिलिपियां हो जाएंगी। वही दिखाई पड़ेगा, शेष सब गौण होता चला जाएगा। 

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