Wednesday 22 October 2014

दर्शन देकर मनचाहा वर मांगने को कहा

भक्त नरसी महेता का जन्म १५ वीं शताब्दी में सौराष्ट्र के एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बालक नरसी आरम्भ में गूंगे थे। आठ वर्ष के नरसी को उनकी दादी एक सिद्ध महात्मा के पास लेकर गयीं। महात्मा ने बालक को देखते ही भविष्यवाणी की कि भविष्य में यह बालक बहुत बड़ा भक्त होगा। जब दादी ने उसके गूंगा होने कि बात बताई तो महात्मा ने बालक के कान में कहा " बच्चा, कहो राधा-कृष्ण" और देखते ही देखते नरसी "राधा-कृष्ण" का उच्चारण करने लगा।
बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण नरसी का पालन-पोषण उनकी दादी और बड़े भाई ने किया। बालक नरसी बचपन से ही साधु-संतों की सेवा किया करते थे और जहां कहीं भजन-कीर्तन होता था, वहीं जा पहुंचते थे। रात को भजन-कीर्तन में जाते तो उन्हें समय का ख्याल न रहता। रात को देर से घर लौटते तो भाभी की जली-कटी सुननी पड़ती; परन्तु वह उसपर कुछ भी ध्यान न देते और जो भी ठंडा-बासी खाना रखा रहता, उसे खाकर सो जाते।
छोटी अवस्था में ही नरसी का विवाह माणिकबाई नामक किशोरी के साथ कर दिया गया। माणिकबाई जब घर में आईं तो उन्हें भी भाभी की जली कटी सुननी पड़ी। उन्हें अपनी चिन्ता न थी, परन्तु अपने पति को सुनाई जाने वाली भली-बुरी बातों को सुनकर उन्हें बहुत दु:ख होता। उन्होंने पति को कुछ काम-धंधा करने को बहुत समझाया, परन्तु उन पर कुछ भी असर न हुआ। एक बार एक साधु-मंडली आई हुई थी। नरसी उसके साथ भजन-कीर्तन में ऐसे रम गये कि आधी रात बीत जाने पर भी उन्हें घर की सुध नहीं आई। जब वह घर लौटे तो घर के सब लोग सो गये थे। बस माणिकबाई जाग रही थीं। उन्होंने किवाड़ खोले। आहट पाकर भाभी जाग गईं और नींद में खलल पड़ने के कारण उन्होंने वह खरी-खोटी सुनाई कि नरसी के दिल पर उसकी गहरी चोट पहुँची। दूसरे दिन सूरज निकलने से पहले ही वह घर छोड़कर चले गए। घरवालों ने बहुत खोजा लेकिन उनका पता न चला। कुछ दिनों तक वह लापता रहे।
नरसी को उस रात की घटना से बड़ी ग्लानि हुई। उन्हें अपने पर क्रोध आया और दुनिया से उनकी मोह-ममता टूट गई। उन्हें अपने जीवन का भी मोह न रहा। जूनागढ़ से निकलकर जंगल की ओर चल दिये। जूनागढ़ गिरनार (रैवतक) पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ है। गिरनार का जंगल शेर-चीते आदि हिंसक जानवरों के लिए प्रसिद्ध है। उसी घने जंगल में वह घूमते रहे। शायद यह चाह रहे थे कि कोई शेर या चीता आ जाये और उन्हें खत्म कर दे। इतने में उन्हें एक मंदिर दिखाई दिया। मंदिर टूटा-फूटा था, परन्तु उसमें शिवलिंग अखंड था। कई वर्षो से उसकी पूजा नहीं हुई थी। शिवलिंग को देखकर नरसी का हृदय भक्ति से भर गया। उन्होंने शिवलिंगको अपनी बांहों में भर लिया और निश्चय किया कि जब तक शिवजी प्रसन्न होकर दर्शन न देंगे तब तक मैं अन्न -जल ग्रहण नहीं करूंगा। कहते हैं कि उनकी भक्ति तथा अटल निश्चय को देखकर शिवजी प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर मनचाहा वर मांगने को कहा। नरसी का हृदय निर्मल था। उसमें काम, क्रोध आदि बुराइयां नहीं थीं। इसलिए उन्होंने शिवजी से कहा, "भगवान जो आपको सबसे अधिक प्रिय हो, वही दे दें।" शिवजी 'तथास्तु' कहकर उन्हें अपने साथ ले गये। नरसी को बैकुंठ के दर्शन हुए। वहां रासलीला चल रही थी। गोपियों के बीच कृष्ण लीला कर रहे थे। रात के समय का दृश्य अत्यंत सुन्दर था। शिवजी हाथ में मशाल लिये प्रकाश फैला रहे थे। उन्होंने अपने हाथ की मशाल नरसी को दे दी। मशाल पकड़े नरसी रासलीला देखने में इतने लीन हो गए कि जब मशाल की लौ से उनका हाथ जलने लगा तब भी उनको इसका पता न चला। श्रीकृष्ण ने अपने भक्त को देखा और उनके हाथ को ठीक किया। श्रीकृष्ण ने नरसी को भक्तिरस का पान कराया और उन्हें आज्ञा दी कि जैसी रासलीला उन्होंने देखी, उसका गान करते हुए संसार के नर-नारियों को भक्ति-रस का पान कराये। नरसी की वाणी की धारा बहने लगी। उनके भक्ति-भाव-भरे भजन सुनकर लोग लोग मंत्र-मुग्ध होने लगे और उन्हें जगह-जगह गाने लगे।
भक्त नरसी स्वभाव के बड़े नरम थे। जिस भाभी के कठोर वचनों के कारण उन्हें घर छोड़कर जाना पड़ा था, उन्हें भी उन्होंने अपना गुरु माना। नरसी ने कहा कि उन्हीं की वजह से उन्हें भगवान के दर्शन हुए इसलिए उनके उपकार को कैसे भूलूं।
नरसी जूनागढ़ लौट आये और साधु-संतों की सेवा और भजन-कीर्तन करने लगे। घर माणिकबाई संभालती थीं। उनके दो बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की। लड़के का नाम श्रीकृष्ण के नाम पर शामल रखा गया और लड़की का कुंवरबाई।
भजन-कीर्तन के नाम पर जब और जहां चाहो, नरसी महेता को रोक लो। एक बार पिता के श्राद्ध के दिन वह घी लेने बाज़ार गये। वहां कीर्तन की बात चली तो वहीं जम गये। ऐसे जमे कि घर, श्राद्ध, घी और भोजन के लिए बुलाये लोगों को भूल गये। तब भक्तों की विपदा हरने वाले भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं नरसी का रूप रखकर उनके घर जाना और श्राद्ध का काम करना पड़ा। नरसी जब घर लौटे तब तक ब्राह्मण खा-पीकर जा चुके थे।
नरसी भजन के लिए हरिजनों के घर भी जाते थे। एक बार जूनागढ़ के अछूत माने जाने वाले लोगों ने नरसी से विनती की कि वह उनके घर में आकर भजन-कीर्तन करें। हरिभक्तों का प्यार भरा बुलावा नरसी कैसे अस्वीकार कर सकते थे? उन्होंने कहा, "जहां छुआ-छूत होती है, वहां परमेश्वर नहीं होते। गोमूत्र छिड़कना, गोबर से लीपना-पोतना और तुलसी का पौधा लगाकर तैयारी करना। मैं रात को अवश्य आऊंगा।"
रात को जाकर उन्होंने सबेरे तक भजन-कीर्तन किया। अपने साथ प्रसाद ले गये थे, उसे बांटा और हरिकथा कहते अपने घर लौट आये।
विवाह के कुछ दिन बाद ही उनके पुत्र शामल का देहांत हो गया। बेटी ससुराल चली गई। अब माणिक अकेली रह गईं। नरसी तो भजन करते रहते और माणिक घर चलाती। घर में आये साधु-संतों की सेवा में ही उसका समय बीतता। एक दिन इस संसार को छोड़कर अपने पति के चरणों का ध्यान करती हुई चल बसीं। नरसी अब एकदम मुक्त हो गये । उन्होंने कहा, "अच्छा हुआ, यह झंझट भी मिट गया। अब सुख से श्रीगोपाल का भजन करेंगे। "नरसी भक्त थे, सरल थे, सबका भला चाहते थे 

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