Friday 3 October 2014

समाधिस्थ हो जाना निर्वाण हो जाना है

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। निर्वाण के द्वार पर वे आ गए हैं। द्वार खोल दिया गया। लेकिन वे पीठ फेर कर खड़े हो गए हैं। कहानी है, पर बड़ी मधुर है, और बुद्धत्व के संबंध में बड़ी सूचक है। द्वारपाल ने कहा, आप भीतर आएं। हम कितने युगों से आपकी प्रतीक्षा करते हैं। कितने युगों से आपका निरीक्षण करते हैं कि प्रति कदम आप आते जा रहे हैं करीब। बुद्ध ने कहा, लेकिन मेरे पीछे बहुत लोग हैं। अगर मैं खो गया शून्य में, तो उनके लिए मैं कोई सहारा न दे सकूंगा। मुझे यहीं रुकने दो। मैं चाहूंगा कि सब मुझसे पहले प्रवेश हो जाएं निर्वाण में, फिर अंतिम मैं रहूं।
ऐसा होता है, ऐसा नहीं है। ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन यह महाकरुणा का प्रतीक है। कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था एक यहूदी फकीर की, जो इससे भी मीठी है।
झूसिया नाम का हसीद फकीर मरा। वह स्वर्ग के द्वार पर खड़ा है, निर्वाण के द्वार पर। वह भीतर नहीं जाता। वह कहता है, भीतर जाकर भी क्या करेंगे! जो पाना था वह पा लिया। और फिर अभी बहुत लोग हैं जिनको मेरी जरूरत है। स्वयं परमात्मा चिंतित हो गया है। कोई रास्ता नहीं है झूसिया को समझाने का कि तुम भीतर आ जाओ। परमात्मा सिंहासन पर बैठा है। द्वार से झूसिया देख रहा है। परमात्मा कहता है, भीतर आ जाओ। झूसिया कहता है, क्या करेंगे? देख लिया, पा लिया। अभी दूसरों को सहायता देनी है। जो मिला है उसे बांटना है। मुझे यहीं रुकने दें। मुझ पर दया करें। द्वार बंद कर लें।
कोई रास्ता न देखकर, परमात्मा यहूदियों की किताब ‘तोरा’ अपने हाथ में रखे है, उसने किताब छोड़ दी। वह किताब जमीन पर: गिरी। पुरानी आदतवश झूसिया भागा; क्योंकि ‘तोरा’ गिर जाए तो उसे उठाना चाहिए। वह किताब उठाने गया, दरवाजा बंद कर दिया गया। तब से वह बाहर नहीं निकल पाया। परमात्मा को तरकीब लगानी पड़ी-‘तोरा’ गिराना पड़ा।
कहानी बड़ी मीठी है। झूसिया वहीं रुक जाना चाहता था-समाधि पर, निर्वाण तक नहीं जाना चाहता था। लेकिन कोई उपाय करना ही पड़ेगा, समाधि पर कोई रुक नहीं सकता। फल जब पक गया तो गिरेगा ही। फल कितना ही चाहे, पर अब रुकने का कोई उपाय न रहा। पक जाना गिर जाना है। समाधिस्थ हो जाना निर्वाण हो जाना है।

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