Friday 3 October 2014

न भक्त, न भगवान; फिर वही रह जाता है जो है।

पर निर्वाण के पहले ये तीन घटनाएं घटती हैं। पहले एक सातत्य बनता है भीतर अचेतन मन में; फिर चेतन में झलकें आनी शुरू होती हैं; फिर कोई द्वार पर खड़ा हो जाता है; फिर सब खो जाता है। फिर न जानने वाला बचता, न जाना जाने वाला बचता; न जाता, न ज्ञेय; न भक्त, न भगवान; फिर वही रह जाता है जो है। कृष्णमूर्ति जिसे कहते हैं, दैट व्हिच इज। वही रह जाता है जो है। निःशब्द! अनिर्वचनीय! वही मंजिल है। वही पाना है।
पाने के दो उपाय मैंने तुमसे कहे : या तो प्रेम से। संभव हो सके, तो प्रेम का रास्ता बड़ा हरा- भरा है, वहां इंद्रधनुष हैं और फूल खिलते हैं और झरनों में कल-कल नाद है, और गीत का गुंजार है, और नृत्य भी है। अगर नहीं, तो ध्यान का मार्ग है। ध्यान का मार्ग थोड़ा मरुस्थल जैसा है। उसका अपना सौंदर्य है। उसकी अपनी स्वच्छता है। उसका अपना विस्तार है। लेकिन थोड़ा रूखा-सूखा है। वहा काव्य नहीं है, हरियाली नहीं है, मरूद्यान नहीं है। पर प्रत्येक को अपने को ध्यान में रखना है कि उसको कौन सी बात ठीक पड़ेगी।
स्त्रैण चित्त प्रेम के मार्ग से जा सकेगा। और कई पुरुषों के पास स्त्रैण चित्त है; वे भी प्रेम से ही जा सकेंगे। पुरुष चित्त ध्यान से जा सकेगा। और कई स्‍त्रियों के पास पुरुष चित्त है; वे भी ध्यान से ही जा सकेंगी। इसलिए शरीर से स्त्री और पुरुष होने
पर ध्यान मत देना। अपने चित्त को पहचानने की फिकर करना। कहीं ऐसा न हो कि तुम जा सकते थे प्रेम से और ध्यान की कोशिश करो, तो फिर तुम सफल न हो पाओगे। तुम्हारे स्वभाव के विपरीत कुछ भी सफल नहीं हो सकता।
इसलिए मार्ग पर साधकों के लिए सबसे बड़ी जो बात है, वह यही जान लेना है कि उनका क्या प्रकार है। और इसलिए गुरु अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि तुम कैसे पहचानो कि क्या तुम्हारा प्रकार है? अपने से इतनी दूरी नहीं कि अपना निरीक्षण कर सको। कोई चाहिए, जो रास्ते से गुजर चुका हो। कोई चाहिए, जो तुम्हें दूर से खड़े होकर देख सके और पहचान सके, और तुमसे कह सके कि तुम्हारा प्रकार क्या है। क्योंकि सबसे बड़ी बात वहीं घटती है। अगर प्रकार ठीक तालमेल खा गया, तो जो जन्मों में नहीं घटता वह क्षणों में घट जाता है। और अगर तुम प्रकार के विपरीत चेष्टा करते रहे, तो जो क्षणों में घट सकता था वह जन्मों में भी नहीं घटता है।

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