Monday 27 October 2014

आत्मा को परमात्मा के समीप ले आता है

शरीर के अंदर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्यमान है। जिसमेंतीनों काल छुपे हैं; भूत, वर्तमान और भविष्य- सबहममें ही निहित हैं।मनुष्य के भीतर स्थित पाँच-कोषों को खोलकरही आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। इनपाँचों कोशों में सबसे निम्न स्तर पर है, अविद्या। इस अन्न-जलरुपी ‘अन्नमय-कोष’ से मनुष्य कभी बाहरनिकल ही नहीं पाता।इसकी प्रत्येक परत मानो किसी पुष्पकी कोंपल के समान होती है। जैसे-जैसेइसकी पंखुड़ियाँ खुलती हैं, आत्म-ज्ञानकी सुगंध उतनी ही अधिकमिलती है। ‘मूलाधार चक्र’ को योग द्वारा सक्रिय करकेइस अन्नमय कोष से बाहर निकला जा सकता है।अन्नमय कोष से मुक्ति पाकर मनुष्य ‘प्राणमय कोष’ के स्तर परपहुँचता है। इस कोष को प्राण-वायु फलीभूत करता हैऔर अधिकांश मनुष्य प्राण-वायु के विकार के कारणही ‘अज्ञान और अहंकार’ से ग्रस्त होते हैं। नाभि मेंस्थित ‘स्वाधिष्ठान चक्र’ को जागृत करके ‘प्राणमय कोष’ से मानुषको मुक्ति मिल सकती है।इससे ऊपर ‘मनोमय कोष’ है। जिसके द्वारा मनुष्य द्वेष के अंकुश मेंउलझ जाता है; और स्वार्थ उसकी जीवन-शैली का अभिन्न अंग बन जाता है। ‘ह्रदय चक्र’ केसमीप पहुँचते ही मनुष्य अपने विचारों औरचिंतन को एक गंतव्य तक निर्धारित कर सकता है। ऐसा करके मनोमयकोष को नियंत्रित किया जा सकता है।इससे ऊपर स्थित ‘विज्ञानमय कोष’ मनुष्य के ‘अहं-भाव’ के कारकहोते हैं, जिससे ‘अहंकार’ भाव उत्पन्न होते हैं। कंठ में स्थित‘आनंदमय चक्र’ को जागृत करके मनुष्यअपनी अधीरता और व्याकुलता को नियंत्रितकर सकता है। ऐसे व्यक्ति सुख-दुःख, प्रत्येक परिस्थिति में भाव-विभोर और तन्मय रहते हैं।ललाट के मध्य में स्थित है सबसे शक्तिशाली चक्र,‘आज्ञा-चक्र’। इस चक्र को जागृत करके मनुष्यअपनी छठीं इन्द्रिय को गतिशीलकरते हुए, आत्मा को परमात्मा के समीप ले आता है।जब मनुष्य सुख्कारका भाव अथवा दुःख-कारक भाव को तटस्थ करनेके योग्य हो जाता है, तब वह आनंद-कोष को प्राप्त कर जाता है!... और फिर मनुष्य अपने गंतव्य, शिव को प्राप्त करता है! शिवोsहं! शिवोsहं! 

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