Wednesday 1 October 2014

समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर हैं

प्राणिनाँ देहमध्ये तु स्थितो हंसः सदाऽच्युतः। हंस एव परं सत्यं हंस एवंत सत्यकम्॥
हंस एव परं वाक्यं हंस एवंत वैदिकम्। हस एवं परो रुद्रो हंस एवं परात्परम्॥
सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एवं महेश्वरः। हंसज्योतिरनूपम्यं देवमध्ये व्यवस्थितम्-ब्रह्मा विद्योपनिषद्
प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप अवस्थित हैं हंस ही परम सत्य हैं हंस ही परम बल है।
समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर हैं हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम रुद्र है, हंस ही परात्पर है।
समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान् है।
सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए।
नभस्स्थ निष्कलं ध्यात्वा मुच्यते भवबन्धनात्। अनाहतध्वनियुत हंसं यो वेद हृद्गतम॥
स्व प्रकाशचिदानन्द स हसं इति गीयते। नाभिकन्दे समं कृत्वा प्राणापानौ समाहितः मस्तकस्थामृतास्वादं पीत्वा ध्यानेन सादरम्॥
हंसविद्यामृते लोके नास्ति नित्यत्वसाधनम्। यो ददाति माहविद्या हंसाख्याँ पावनीं पराम्॥
हंसहंसेति यो ब्रू याद्धं सो ब्रह्मा हरिः शिव। गुरु वक्रात्तु लभ्येत प्रत्यक्षं सर्वतोमुखम्-ब्रह्म विद्योपनिषद्-
जो हृदय में अवस्थित अनाहत ध्वनि सहित प्रकाशवान चिदानन्द ‘हंस’ तत्त्व को जानता है सो ‘हंस’ ही कहा जाता है।
जो अमृत से आय सिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्त्व का जप करता है उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है।
इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाव़ा को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है।
जो ‘हंस’ तत्त्व की साधना करता है वह त्रिदेव रूप है। वह सर्वव्यापी भगवान को जान ही लेता है।
मनसो हंसः सोऽहं हंस इति तन्मयं यज्ञो नादानुसंधानम्-पाश्पत ब्रह्मोपनिषद्-
मानस ब्रह्म का रूप-हंस है। यही सोऽहम् है। यह हंस बाहर भ्रमण करता है भीतर भी। यह परमात्म स्वरूप है। इसका तन्मयता यज्ञ-नादानुसन्धान है।
हंसात्ममालिका वर्णब्रह्माकालप्रचोदिता। परमात्मा पुमानिति ब्रह्मसंपत्तिकारिणी-पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्
हंस यह वर्ण ब्रह्म है। इसी से ब्रह्म की प्राप्ति होती है। पुरुष और परमात्मा यही है।
हंसविद्यामविज्ञाय मुक्तो यत्र करोति यः । स नभोभक्षणेनैव क्षुन्नितृर्ति करिष्यति-सूत संहिता
हंसयोग को जान कर जो प्रयत्न करता है वह सब प्रकार की क्षुधाओं से निवृत्त हो जाता है।
पाशान् छित्वा यथा हंसो निविशकं खमुत्पतेत्। छिन्नपाश्स्तथा जीवः संसार तरते सदा-क्षूरिकोपनिषद्

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