Thursday 2 October 2014

हमारा मन वैरागी हो जाता है

ऋतु बदलती है तो नव सृजन होता है। हम भी अगर खुद में परिवर्तन लाएं तो बहुत कुछ नया कर सकते हैं, लेकिन परिवर्तन ऐसा नहीं, जैसा पानी में होता है। पानी को फ्रिज में रख दो तो बर्फ बन जाता है। जहां फ्रिज से संपर्क टूटा तो फिर अपने पुराने स्वरूप में आकर पानी बन जाता है। उसे गर्म करो तो भाप का आकार ले लेता है। भाप हवा से संपर्क होते ही कुछ समय बाद फिर से पानी बन जाता है।
ठीक इसी पानी की तरह हम भी अपने आपको बहुत जल्दी बदल लेते हैं। जब कभी हम श्मशान में होते हैं, हमारा मन वैरागी हो जाता है। किसी धर्म-स्थान में अपने को परमात्मा स्वरूप में ढाल लेते हैं, लेकिन जैसे ही बाहर आते हैं, हम तुरत सांसारिक हो जाते हैं। जैसे पानी का रूप परिवर्तन खुद का नहीं, फ्रिज, आग और वायु के संसर्ग से आया परिवर्तन है, वैसे ही श्मशान या धर्म-स्थान में हम जो क्षणिक परिवर्तन अनुभव करते हैं, वह हमारा परिवर्तन अपने आप नहीं होता। वह हममें उन जगहों और वातावरण के प्रभाव से आता है।
हमें परिवर्तन तो वह लाना है, जो दूध में होता है। दूध में थोड़ा सा भी जामन डालने पर दही बन जाता है। उसे उबाल कर मथो तो मक्खन बन जाता है। मक्खन को पिघलाओ तो घी बन जाता है। इतने रूप धरने के बाद उसे किसी भी प्रक्रिया से गुजारो, लेकिन वह कभी फिर दूध नहीं बनेगा। यह है स्थायी बदलाव। हमें अपने में ऐसा ही परिवर्तन चाहिए। हम अगर एक बार अपने आत्म-स्वरूप में आ जाएं तो चाहे जैसी भी परिस्थति हो, किसी भी कसौटी पर परखे जाएं, कुछ भी बदले पर हम अपने संस्कार में कोई बदलाव न लाएं। अपनी मर्यादा और सीमा रेखा को न लांघें। नकली जीवन की अंधी लालसा के मोहपाश में न फंसें।

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