Sunday 19 October 2014

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।

श्री राम ने जन्म लिया और पहला मौका मिलते ही अयोध्या छोड़ दिया.. क्योंकि उनको तो युद्ध करना था और अयोध्या में युद्ध कैसे होगा.. तो अयोध्या से निकले और उनके सामने भी यही प्रश्न उपस्थित हो गया.. कहाँ रहें? अयोध्या से निर्वासित किये जाने के बाद .. राम भटक रहे हैं.. ऋषि भारद्वाज के आश्रम में पहुँचते हैं.. बैठ कर सांस लेने के बाद राम ऋषि भारद्वाज से कहाँ रहें के सवाल पर मशविरा करते हैं.. और देखिये क्या कहते हैं भारद्वाज..
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौँ ठाउँ॥
आप मुझसे मुझसे पूछ रहे हैं कि कहाँ रहूँ.. और मुझे आपसे ये पूछते हुये संकोच हो रहा है कि आप मुझे वो स्थान बताइये कि आप जहाँ न हो तो मैं आप को वही स्थान बता दूं कि आप वहाँ रहिये..
राम मुस्कुराते हैं भारद्वाज जी हँसते हैं और फिर मधुर अमिअ रस बोरी बानी से कहते हैं..
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।
दो0-जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु।।128।।
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
दो0-सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।129।।
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।
दो0-स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।130।।
अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।
दो0-जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।131।।
संक्षेप में बात यह है कि राम अपने भक्तों के हृदय में निरन्तर निवास करें ऐसा भारद्वाज जी का निवेदन है..
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥
मुनि ने राम को सब स्थान बता दिये.. राम को बात पसन्द आई फिर मुनि ने कहा कि हे सूर्यवंशी राम अब मैं आपको समय काटने के लिये रहने का स्थान बताता हूँ..
और राम को चित्रकूट का पता देते हैं.. राम वहां रहते हैं .. पंचवटी रहते हैं.. वो जहां जाते हैं.. जहां से गुज़रते हैं.. तीर्थ बनता जाता है.. हमारे पूरे देश में राम के चिह्न अंकित हैं.. राम इस देश के चप्पे चप्पे में बसे हुये हैं..जन जन के मन में बसे हुये हैं.. मगर फिर भी ये प्रश्न बना रहता है राम बेघर हैं और उन्हे अवध वापस भेजना है.. ये बात मेरे गले नहीं उतरती कि पूरे देश में तो मॉल बनें.. और एक अवध में मन्दिर.. भारद्वाज जी ने तो कुछ और ही कहा था..
काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।

No comments:

Post a Comment