Monday 20 October 2014

मनुष्य चाहे तो परमात्मा को प्राप्त कर सकता है

हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है, पर साथ साथ एक राक्षस और देवता भी छिपा हुआ है|
मनुष्य इन तीनों का मिलाजुला रूप है| कभी कौन सा गुण अधिक हो जाता है, कभी कौन सा|
आखिर मनुष्य में और पशु में अंतर है ही कहाँ?
आध्यात्मिक रूप से तो जो भी पाश में बंधा है वह पशु है, जिसको पाश से मुक्ति पशुपतिनाथ की कृपा से ही मिलती है| पर यहाँ उसके लौकिक अर्थ पर विचार हो रहा है|
सभी जीव जीवन भर आश्रय और भोजन की खोज में इधर उधर भटकते और परिश्रम करते है एवं प्रायः आपस में लड़ते झगड़ते रहते है| अधिकांश जीव अपने निवास और क्षेत्र के लिए जीवन भर संघर्ष करते है| कई बार तो अपना जीवन साथी चुनने के लिए भी आपस में लड़ते है| उन्हें जीवन भर यही सब कुछ करना पड़ता है और फिर वे अगली पीढ़ी को जन्म दे कर और तैयार कर के मर जाते है| उनका केवल एक ही उद्देश्य दिखाई देता है ---- अगली पीढ़ी को तैयार करना|
मनुष्य भी धन संपत्ति, सुख सुविधाओं, घर, नौकरी, व्यवसाय, जीवन में सफलता आदि के लिए जीवन भर परिश्रम, प्रतिद्वंदिता और संघर्ष करता है| फिर विवाह और संतानोत्पति कर अगली पीढ़ी को तैयार करके मर जाता है|
क्या मनुष्य जीवन का यही उद्देश्य है कि वह अगली पीढ़ी को तैयार करे और मर जाए?
मेरी सोच से काम वासनाओं का सदैव चिंतन ही पशुता है| कई मामलों में तो पशु भी मनुष्य से श्रेष्ठ हैं| पशु अपनी काम वासनाओं और उदर की पूर्ति प्रकृति के चक्र के अनुसार ही करता है| पर अधिकाँश मनुष्यों के तो जीवन का लक्ष्य ही है काम वासनाओं और जिह्वा के स्वाद कि पूर्ति| विवाह कि संस्था धीरे धीरे समाप्त होती जा रही है| दोनों लिंगों के लिए विवाह एक शोषण का माध्यम बनता जा रहा है|
कुछ पंथ और सम्प्रदाय भी ऐसे हैं जिन में कामुकता को प्रश्रय और काम वासना कि पूर्ति ही जीवन का ध्येय है| हमारी वृत्तियाँ पशुओं के समान या उनसे भी बुरी ही है क्या?
फिर राक्षसी प्रवृति कि बात करते हैं| धर्म-अधर्म से कैसे भी धन एकत्र करना, लोभ और अपने अहं की पूर्ति के लिए अपना प्रभुत्व ज़माना और दूसरों को पीड़ित व दुखी करना, अपने आधीन करना, यह एक राक्षसी प्रवृति है| ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार मनुष्य को राक्षस बनाते है| अपने विचारों कि श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए और अपने जीभ के स्वाद के लिए दूसरों कि ह्त्या और जनसंहार यह राक्षसों का कार्य है| इस राक्षसी वृत्ति ने पता नहीं इस सृष्टि में कितने जन संहार किये है, कितने हज़ारों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ की हैं और पता नहीं कितनी अति उन्नत सभ्यताओं को नष्ट किया है| इस पृथ्वी पर लगता है आजकल राक्षसों, जिनमें असुर, दानव और पिशाच भी आते हैं, का ही राज्य है|
इन सब के होते हुए भी मनुष्य में एक देवत्व भी छिपा है जो उससे परोपकार का कार्य करवाता है|
मनुष्य कभी पशु, कभी राक्षस तो कभी देवता भी बन जाता है| सृष्टि में जितने भी अच्छे कार्य हो रहे उसके पीछे मनुष्य का देवत्व है| यह सृष्टि यदि टिकी हुई है तो मनुष्य के देवत्व के कारण ही टिकी हुई है|
मनुष्य जीवन की एक ही विशेषता है और वह यह है कि सभी मनुष्य अपना कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु अन्य जीव नहीं| मनुष्य स्वयं को मुक्त कर सकता है पर अन्य जीव नहीं|
मनुष्य में विवेक है बस यही उसे पशुओ से अलग करता है|
मनुष्य जीवन कि सबसे बड़ी विशेषता एक ही है कि मनुष्य चाहे तो परमात्मा को प्राप्त कर सकता है जो देवताओं के लिए भी संभव नहीं है| 

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