Monday 27 October 2014

जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी। तभी श्रेष्ठता आती है

संत ज्ञानेश्वर के माता-पिता ने चार संतानें उत्पन्न कीं और चारों संतानें परमयोगी हुईं। तीन भाई और एक बहन। सबसे छोटी मुक्ता, सोपान, ज्ञानेश्वर और सबसे बड़े निवृत्तिनाथ। ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों को कोई पाठशाला में भर्ती करने को तैयार नहीं था, क्योंकि उनके पिता संन्यासी होने के बाद वापस गृहस्थ हो गए थे। पिता ने पंडितों से प्रार्थना की,‘मेरे बच्चों को ज्ञान दिया जाए।’गुरुकुल के मुख्य आचार्य ने कहा,‘अगर आप प्रायश्चित के तौर पर जल-समाधि ले लें, तभी हम बच्चों को पढ़ाएंगे।’बच्चों की पढ़ाई ठीक से हो सके, इसलिए माता-पिता दोनों ने नदी में उतर कर जल-समाधि ले ली। उस समय बच्चे बहुत छोटे थे। सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ 11 साल के थे। तीन भाई और एक बहन। इन चार अनाथ बच्चों ने अपने दिवंगत माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए फिर से गुरुकुल में जाकर प्रार्थना की-‘हमें शिक्षा दीजिए।’पर उस समय के क्रूर, निष्ठुर आचार्यों ने उन्हें बेइज्जत करके निकाल दिया। वे बोले,‘तुम संन्यासी के बच्चे हो, इसलिए हम तुम्हें गुरुकुल में नहीं लेंगे।’उस समय ज्ञानेश्वर ने कहा,‘आप मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य को नीचा क्यों समझते हैं? हर प्राणी में एक ही परमात्मा वास करता है।’
कहते हैं कि उस समय एक किसान अपने भैंसे को ले जा रहा था। उसने अपने भैंसे का नाम‘ज्ञानू’रखा था। यह देख कर एक आचार्य ने ज्ञानेश्वर को कहा,‘क्या उस ज्ञानू में और तुममें कोई भेद नहीं?’ज्ञानेश्वर ने कहा,‘बिलकुल नहीं। उसका शरीर भी पंचतत्त्व का है, मेरा भी शरीर पंचतत्त्व का है। उसके अंदर वही चेतना है, जो मेरे अंदर है। उसके अंदर भी ब्रह्म है, मेरे अंदर भी ब्रह्म है। इसलिए हम दोनों में कोई भेद नहीं।’वह शास्त्री फिर से बोला,‘अगर ऐसी ही बात है तो इस भैंसे से वेद बुलवा कर दिखा।’ज्ञानेश्वर गुरु निवृत्तिनाथ की आज्ञा लेकर आगे बढ़े, भैंसे के सिर पर हाथ रखा। जैसे ही ज्ञानेश्वर ने भैंसे के सिर पर हाथ रखा, भैंसा ऋग्वेद की ऋचाओं का उच्चारण करने लगा। देखने वाले दंग रह गए कि यह कैसे संभव है! भैंसा मनुष्य की आवाज में बोल रहा है!
इस तरह के कई चमत्कार उनके जीवन में घटित हुए, परन्तु योगी, ब्रह्मज्ञानी, परमभक्त ज्ञानेश्वर इन चमत्कारों की वजह से नहीं जाने जाते। समाज-मानस में भरे हुए अज्ञान, तथाकथित पंडितों द्वारा फैलाए गए पाखंड और भेदभाव की वृत्ति, इनमें गरीब और भीरु समाज पीसा जा रहा था। योगेश्वर श्रीकृष्ण की कही गीता और अन्य वेदांत ग्रंथों पर पंडित लोग कुंडली मार कर बैठे हुए थे, इसलिए भगवद्गीता जैसी वेदांत ज्ञान की सरिता को ज्ञानेश्वर महाराज ने गुरु की आज्ञा से मराठी में‘ज्ञानेश्वरी’के रूप में अवतरित किया। इस ग्रंथ की महिमा का वर्णन करते हुए संत एकनाथ महाराज ने कहा है,‘ज्ञानेश्वरी ग्रंथ परम गहन है, परन्तु गुरुपुत्र (ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य) के लिए यह सुगम सोपान (सीढ़ी) की तरह है। भावपूर्वक इसका श्रवण और मनन करने वाला अखंड समाधन को प्राप्त होता है।’चांगदेव जैसे परमयोगी के अहंकार को नष्ट कर उसे भक्तिमार्ग पर चलाने वाले योगीराज ज्ञानेश्वर ने‘अमृतानुभव’नामक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की।
उनके द्वारा रचे गए ग्रंथों की भाषा अति मधुर, अति रसपूर्ण है। उन्होंने हजारों अभंग (भजन) रचे, जिनमें ज्ञान, वैराग्य, गुरुप्रेम, ईश्वर अनुराग, विरह इत्यादि के बारे में उनकी श्रेष्ठ भावदशा का दर्शन होता है। संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित‘हरिपाठ’ने घर-घर में भागवत-धर्म (भक्तिमार्ग) को प्रतिष्ठित किया। उनके समकालीन संत नामदेव, जनाबाई, सावतामाली, सेना नाई, नरहरि सुनार, गोरा कुम्हार इन सभी संतों ने उन्हें अपनी ज्ञानदात्री माउली (माता) के रूप में देखा है। सन्त जनाबाई ने कहा है,‘यह ज्ञान का सागर ज्ञानेश्वर मेरा सखा है। दिल करता है कि मर कर फिर से इस माउली की गोद में जन्म लूं। हे सखा ज्ञानदेव! मेरे भाव को पूरा करिये।’21 वर्ष की आयु में इस महान योगी ने गुरुआज्ञा लेकर अपना जीवनकार्य पूरा किया और सभी तत्कालीन संतों व अपने गुरुदेव के समक्ष संजीवन समाधि में प्रवेश किया।
ये बडे दयालु प्रवृत्ति के थे..
इस विषय में ज्ञानेश्वरजी की छोटी बहन मुक्ताबाईका ही अधिकार बड़ा है। ऐसी किंवदंती है कि एक बार किसी नटखट व्यक्ति ने ज्ञानेश्वरजी का अपमान कर दिया। उन्हें बहुत दुख हुआ और वे कक्ष में द्वार बंद करके बैठ गए।
जब उन्होंने द्वार खोलने से मना किया, तब मुक्ताबाई ने उनसे जो विनती की वह मराठी साहित्यमें ताटीचे अभंग(द्वार के अभंग) के नाम से अतिविख्यात है।
मुक्ताबाई उनसे कहती हैं- हे ज्ञानेश्वर! मुझ पर दया करो और द्वार खोलो। जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी। तभी श्रेष्ठता आती है, जब अभिमान दूर हो जाता है। जहां दया वास करती है वहीं बड़प्पन आता है। आप तो मानव मात्र में ब्रह्मा देखते हैं, तो फिर क्रोध किससे करेंगे? ऐसी समदृष्टि कीजिए और द्वार खोलिए।
यदि संसार आग बन जाए तो संत मुख से जल की वर्षा होनी चाहिए। ऐसे पवित्र अंतःकरण का योगी समस्त जनों के अपराध सहन करता है।

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