Thursday 16 October 2014

परमात्मा के मिलन में अपार आनन्द होता है।

परमात्मा के प्रति विकसित प्रेम जब अपनी चरमावधि में पहुँचता है, तब वह केवल परमात्मा तक ही सीमित नहीं रहता। वह विश्व रूप परमात्मा तक फैल जाता है। सच्चे भक्त और परमात्मा के सच्चे प्रेमी की पहचान यही है कि उसका प्रेम-भाव संसार के सारे जीवों के प्रति प्रवाहित होता रहता है। कोई व्यक्ति कितनी ही पूजा और ध्यान, जप आदि क्यों न करता हो, पर उसका प्रेम भाव संकुचित हो, उसका प्रसार प्राणि मात्र तक न हुआ हो तो उसे भक्त नहीं माना जा सकता।
भगवान् का भक्त, परमात्मा को प्रेम करने वाला अपनी आत्मा और समाज के नैतिक नियमों को भी प्यार करता है। कारण यह होता है कि नैतिक नियमों में आदर्शवाद का समन्वय होता है और आदर्शवाद का ही एक व्यावहारिक रूप होता है। अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा और आत्मा का परमात्मा से होता है। संसार से परमात्मा की और उन्मुख होने का यह एक क्रम है। भगवान का भक्त इस पावन क्रम से विमुख नहीं हो सकता, जो परमात्मा को प्रेम करेगा वह उससे सम्बन्धित इस क्रम में भी प्रेम-भाव रखेगा।

जिसने आदर्शवाद को प्रेम करना सीख लिया उसने मानो परमात्मा को पाने का सूत्र पकड़ लिया। परमात्मा के मिलन में अपार आनन्द होता है। लेकिन उसकी ओर ले आने वाले इस क्रम में भी कम आनन्द नहीं होता। जो आत्मा द्वारा स्वीकृत समाज के नैतिक नियमों का पालन करता रहता है, आदर्शवाद का व्यवहार करता है, वह समाज की दृष्टि में ऊँचा उठ जाता है। समाज उससे प्रेम करने लगता है। ऐसे भाग्यवान व्यक्ति जहाँ रहते हैं उसके आस पास का वातावरण स्वर्गीय भावों से भरा रहता है। कटुता और कलुष का उसके समीप कोई स्थान नहीं होता। जिस प्रकार का निर्विघ्न और निर्विरोध आनन्द परमात्मा के मिलन से मिलता है, उसी प्रकार का आनंद आदर्शवाद के निर्वाह में प्राप्त होता है।
स्वर्ग की उपलब्धि किसी लोक विशेष की उपलब्धि नहीं है। वह अनुकूल और पावन परिस्थितियों का एक धार्मिक नाम है। जहाँ सुन्दर, सुखदायक और कर्त्तव्यपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी, वह स्वर्ग ही माना जायेगा। ईश्वर के सच्चे भक्त में प्रेम की जो पावन धारा बहती रहती है, उसके आधार पर उसके चारों ओर की परिस्थितियाँ भी प्रेमपूर्ण बनी रहती हैं। इसलिये भक्त-जन हर समय स्वर्ग में ही निवास किया करते हैं।
एक दिन मैं बहुत कोमल मखमली गद्दों पर सोया, तब भी वैसे ही स्वप्न आ रहे थे, जैसे सूनी धरती पर आते हैं, तब से मुझे मखमली गद्दों का कोई आकर्षण नहीं रहा, अब मुझे उसे देखने का चाव जाग गया है, जहाँ से यह स्वप्न आते हैं, जहाँ से निरन्तर परावाणी प्रस्फुटित होती है। 

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