Sunday 12 October 2014

निर्गुण परम आत्मा से सीधे जुड़े होते हैं।

सत, रज, और तम गुण तथा निर्गुण जो इन तीनों गुणों का मूल है, भगवन शिव का त्रिशूल है। इस त्रिशूल में तीन शूल होते हैं किन्तु उनका मूल जो भगवन शिव धारण करते हैं एक ही है। पलाश और बेल के पत्र भी इसी दर्शन से पूजित हैं। निर्गुण में तीनों गुणों का अभाव नहीं होता बल्कि वह तीनों गुणों का मूल या श्रोत है। बिजली के तीन फेस जब मिल जाते हैं तब वह नेऊट्रल या निर्गुण बन जाता है। घर में भी आपने देखा होगा की नेऊट्रल का तार पृथ्वी में डाल दिया जाता है क्योंकि निर्गुण में ही सभी गुण समाहित हो सकते हैं और वहाँ उनमें कोई आवेश नहीं रह जाता। सभी गुण या प्राकृतिक धर्म, अपने आप में स्थिर हैं, समान हैं, और निर्गुण परम आत्मा से सीधे जुड़े होते हैं। 

अब गुण क्या है? गुण, आवेश को कहते हैं और हर एक गुण में क्रिया की प्रतिक्रिया भिन्न भिन्न होती है। सत गुण में प्रतिक्रिया अलग, रज गुण में अलग और तम गुण में अलग होती है। निर्गुण में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती क्योंकि यह इतना पूर्ण है कि प्रतिक्रिया के लिए इसमें कोई स्थान ही नहीं।

जिन जीवों ने गुण के रहस्यों को जान लिया वे अद्भुत हैं, और उन्हें उनके अपने कर्म का ज्ञान हो जाता है क्योंकि वे गुण उनके अंदर हैं जिसके प्रभाव ही वे कर्म हैं। उन्हें तब उस कर्म के कारण का ज्ञान हो जाता है, और वे उसी कर्म को करते हुये, मन में स्थिर हो, सुखी होते हैं। यही वर्णाश्रम अर्थात वर्ण (प्राकृतिक गुण, जिसे धर्म भी कहते हैं, से होने वाले कर्म) की श्रम रहित (आश्रम) स्थिति है। 

अर्थात, एक तमो गुणी को राक्षस या शासक होने में स्वाभाविक रुचि होगी, और यही उसका वह कर्म है जो उसको स्वाभाविक (वर्णाश्रम) होगा। वह राक्षस, देश की रक्षा के लिये अपना प्राण दे देगा क्योंकि उसका वही धर्म है, और धर्म निर्वाह में उसको अति प्रसन्नता होगी । राक्षस का धर्म कठिन है किन्तु जो राक्षस उस धर्म से पतित हो जाते हैं, उनका वध उसी कुल के राक्षस से होता है। राक्षस विभीषण और पतित राक्षस रावण का उदाहरण यही सिखाता है।

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