Friday 17 October 2014

घूँघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे

एक व्यक्ति को जानकारी हुयी कि गंगा किनारे के एक सन्त के पास पारसमणि है सो उसे पाने की लालसा में वह संत के पास गया और अपनी इच्छा कही। सन्त ने कहा कि अच्छा है जो तुम ले जाओगे वैसे भी यह हमारे किसी काम की नहीं। व्यक्ति प्रसन्न हो उठा। सन्त ने कहा कि जाओ, कुटिया के छ्प्पर पर एक लोहे की संदूकची है, उसे ले आओ। व्यक्ति को कुछ आश्चर्य हुआ परन्तु छप्पर पर चढ़कर वह छोटी सी संदूकची उठा लाया। क्या इसमें पारसमणि है ? क्या यह पारसमणि असली है ? यदि असली है तो संदूकची सोने की क्यों न हुयी ? जब न रहा गया तो सन्त से पूछ ही लिया कि संदूकची में पारसमणि होने पर भी यह सोने की क्यों न हुयी ?
सन्त ने उसके सामने ही संदूकची को खोला। पारसमणी एक गुदड़ी [वस्त्र] में लिपटी हुयी रखी थी, आवरण में होने के कारण ही लोहे की संदूकची सोने की न हुयी। एक साथ होने पर भी एक-दुसरे का स्पर्श न हो सका और स्पर्श न होने के कारण दोनों का स्वरुप भी अलग-अलग ही बना रहा।
ठीक इसी प्रकार ईश्वर और जीव दोनों ही ह्रदय में एक ही साथ रहते हैं परन्तु दोनों के बीच वासना का परदा होने के कारण दोनों का मिलन नहीं हो पाता। जीवात्मा लोहे की संदूकची है और ईश्वर पारसमणि। जब तक जीव का अहं और ममतारुपी चिथड़ा न हटे तब तक ईश्वर से संपर्क कैसे हो। श्रीहरि से प्रेम करना है, मिलना है तो विषयों का प्रेम छोड़ना ही होगा। जो अत्यधिक निकट है, उसे न देख, कहाँ खोज रहे हो ? जहाँ हो, वहीं बैठ जाओ, भटकाव का समय नहीं है; बहुत समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया। न जाने अब कितनी श्वाँसें शेष हैं ? अगला ही क्षण कहीं अंतिम न हो ! प्रियतम तो प्रेम भरी दृष्टी से निहार ही रहे है कि कब यह मेरी ओर देखे और हम संसार के दृश्यों में आनन्द लेते हुए प्रियतम को खोज रहे हैं।
वो जहाँ हैं, वहाँ न खोजा। वे भी इतने निकट छुपते है, जहाँ हमें संदेह भी नहीं होता और इसी कारण मिलन में देरी हो जाती है। प्राण और प्रियतम ! प्रियतम हैं तो प्राण हैं और जब तक प्राण हैं, वह प्रियतम मेरे पास ही है !! घूँघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे

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