एक बार जयपुर नरेष महाराजा मानसिंह ने संत सिरोमनी श्री अग्रदासजी से काफी अनुनय विनय कर उनके उपदेष को सुनने के लिए श्री नाभादासजी को जयपुर लिवा लाए। महाराज उनका उपदेष सुनकर काफी प्रसन्न और प्रभावित भी हुए। लेकिन दरवारी पंडितों को उनका इस कदर नाभादास जी से प्रभावित होना रास नहीं आया। श्री नाभादास जी का यह प्रभाव उनके लिए इष्र्या का कारण बन गया। उन्होंने नाभादास का अपमान करने की ठानी। सभी दरवारी विद्वानों ने महाराज के सामने उनसे तरह तरह के प्रष्न किए। नाभादास जी ने उनके सभी प्रष्नों का समुचित और सटीक उत्तर दिए। आंत मे उन पंडितों ने जब अपनी न चलती देखी तो उनसे जान बूझकर जाति संबंधि प्रष्न किया। इसके पीछे उनकी मंषा थी कि नाभादास का मान भंग किया जाय। लेकिन उनके प्रष्न को नाभादास जी ने पहले तो महत्त्वहीन समझा और उसपर कुछ भी बोलने से परहेज किया। फिर उनके जिद को देखते हुए उसे व्यर्थ ठहराया। यथा- जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार को पड़ा रहन दो म्यान।। पुनष्च- अर्चावतारोपादानम् वैष्णवोत्पत्तिचिन्तनम्। मातृयोनिपरीक्षां च तुल्यमाहुर्मनीषिणः।। अर्थत भगवद्विग्रह मी उत्पत्ति का उपादान कारण् कि यह धातु की है या पाषाण की, वैष्णवों की उत्पत्ति और मातृयानि की परीक्षा करना, इन तीनों को पंडितजन तुल्य कहते हैं। यानि ये महापाप है। फिर नाभादास जी ने कहा- मृतक चीर, जूठनि वचन, काक विष्ट अरू मित्र। षिव निरमायल आदि दै, ये सब वस्तु पवित्र।। अर्थात- काक विष्ठा से उत्पन्न हुआ पीपल का पेड़ मनुष्यों की बात ही क्या देवताओं द्वारा भी पूज्य है। यानि- काक विष्ठा समुत्पन्नो अष्वत्थं प्रोच्यते बुधैः। दैवैरपि नरैर्वापि पूज्य एव न संषयः। (पद्मपुराण) मृतक मृगा का चीर, उसका चर्म अर्थात मृगछाला सदा पवित्र होता है। बछड़ों का जूठन दूध सदा पवित्र होता है। षिवनिर्माल्य श्रीगंगाजी सदा परम- पावनी हैं। मधुमक्खी और भौंरे सभी फूलों को सूंघते हैं परंतु वह सदा पवित्र ही होते हैं। वे पुष्प् और उन पुष्पों से बना इत्र भगवान को चढ़ता है। ऐसे ही वैष्णव किसी भी कुल मे उत्पन्न हों वे सदा पूज्यतम ही होते हैं। श्री नाभादासजी के इस षास्त्र सम्मत वचन को सुनकर पंडित लोग बड़े ही लज्जित हुए, तब उनका सोच मिटाने के लिए परम साधु श्री नाभाजी ने बात का पैंतरा बदलकर बोले- आप लोग तो सर्वषास्त्र ज्ञाता हैं। सब जानते हैं परंतु हमारे मुख से सुनने के लिए ऐसा प्रष्न किए। आप लोगों के साथ षास्त्र संबंधी विचारकर मैं अपने को धन्य मानता हूं। धीर नाभाजी के इन गंभीर वचनों से ब्राह्मण भी बड़े प्रभावित हुए।
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