Friday 10 October 2014

केवल दान या स्नान से मन शुद्ध नहीं होता।

व्यासजी ने ध्यान की चर्चा करते हुए कहा कि एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करो। 
मन को प्रभू के स्वरूप में स्थिर किया जाए। 
एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करने से मन एकाग्र होता है। ध्यान का एक अर्थ है मानस दर्शन। 
ध्यान में पहले तो संसार के विषय उभरते हैं। 
वे मन में न आएं ऐसा करने के लिए ध्यान करते समय परमात्मा के नाम का बारंबार चिंतन करो। 
जिससे मन स्थिर हो सके इसके लिए सांस पर भी नियंत्रण किया जाए। 
उच्च स्वर से कीर्तन भी किया जा सकता है। कीर्तन से संसार का विस्मरण होता है।

केवल दान या स्नान से मन शुद्ध नहीं होता। ध्यान की परिपक्व दशा समाधि है। 
भगवान के प्रति ध्यान नहीं होगा तो संसार का ध्यान होता रहेगा।
मंगलाचरण में व्यासजी लिखते हैं -सत्यंपरंधिमहि। 

अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं। सत्य ही परमात्मा है।

कपट नहीं है ऐसी निष्कपट चर्चा ही भागवत का मुख्य विषय है। 
भागवत का मुख्य विषय है निष्काम भक्ति। 
जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती। भगवान के लिए भक्ति करें।
भक्ति का फल भगवान होना चाहिए, संसार सुख नहीं। मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है। 

इसीलिए कृष्ण कह गए हैं कि जो आनंद मुझे गोकुल में गोपियों से मिला है वह द्वारका में नहीं मिला क्योंकि गोपियों का प्रेम निष्काम है। 

सत्कर्मों में अनेक विघ्न आते हैं ! उन सभी के निवारण के लिए मंगलाचरण की आवश्यकता है ! जिनका आचरण मंगलमय है, उनका ध्यान धरने से, उन्हें वंदन करने से, उनका स्मरण करने मात्र से मंगलाचरण होता है !

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