Wednesday 1 October 2014

जीवात्मा सहज स्वभाव सोऽहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ

जिस प्रकार हंस स्वच्छन्द होकर आकाश में उड़ता है उसी प्रकार इस हंसयोग का साधक सर्व बन्धनों से विमुक्त होता है।
‘ह’ और ‘स’ अक्षरों की पृथक्-पृथक् विवेचना भी शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से की है। इन अक्षरों से कई प्रकार के अर्थ निकलते हैं और दोनों के योग से ‘साधक’ को एक उपयुक्त दिशा धारा मिलती है।
हकारो निर्गमे प्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम्। हकारः शिवरुपेण सकारः शक्तिरुच्यते-शिव स्वरोदयं
श्वास के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में सकार होता है। हकार शिव रूप और सकार शक्ति रूप कहलाता है।
हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते। सूर्य चन्द्रमसोरै क्यं हठ इव्भिधीयते॥
हठेन ग्रस्यते जाडद्य सर्वदोष समुद्भवम्। क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तपोरैक्य तदाभवेत्-योग शिखोपनिषद्
हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और प्रकार से चन्द्र या बाम स्वर होता है। इस सूर्य चन्द्र दोनों स्वरों में समता स्थापित हो जाने का नाम हठयोग है। हम द्वारा सब दोषों की कारणभूत जड़ता का नाश हो जाता है और तब साधक क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) से एकता प्राप्त कर लेता है।
जीवात्मा सहज स्वभाव सोऽहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ साथ अनायास ही करता रहता है। यह संख्या औसतन चौबीस घण्टे में इक्कीस हजार छः सौ के लगभग हो जाती है।
हकारेण बहिर्यात सकारेण विशेत्पुनः। हंस हंसेत्यसु मन्त्र जीवो जपति सर्वदा॥
शट् शतानि त्वहोरात्रे सहस्राष्येकविंशतिः। एतत्संख्यान्वित मन्त्र जीवो जपति सर्वदा-गोरक्षसंहिता 
यह जीव (प्राणवायु) हकार की ध्वनि से बाहर आता और सकार की ध्वनि से भीतर जाता है। इस प्रकार व सदा हंस हंस मन्त्र का जप करता रहता है।
इस भाँति वह एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छः सौ मन्त्र सदा जपता रहता है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर सोऽहम् का संक्षिप्त रूप ‘ऊँ’ हो जाता है।
सकारं चहकारं च लोपयित्व प्रयोजनत। संधि च पूर्व रुपाख्याँ ततोऽसौ प्रणवो भवेत्॥
सोऽहम् पद में से सकार और हकार का लोप करके सन्धि की योजना करने से वह प्रणव (ऊँ कार) रूप होता है।

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