Thursday, 23 October 2014

ह्रदय में स्थित श्री सदगुरू के दर्शन कर आत्म ज्ञान सम्पन्न हो जाता है

 भजन के समय अपने मालिक का अपने अन्दर स्पष्ट दर्शन नहीं हो पाता । जिससे असन्तोष बना रहता है । मालिक के स्वरूप के दर्शन में चित्त कैसे स्थिर हो ? कृपा कर समझाने का कष्ट करें ।

उत्तर - भजन । सुमिरन । ध्यान के अभ्यास के समय श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा से अन्दर में श्री सदगुरू का दर्शन यदा कदा होता रहता है । यदि श्री सदगुरूके स्थूल रूप का ध्यान करता है । तो श्री सदगुरू के स्थूल रूप के दर्शन होते हैं । श्री सदगुरू के नाम के भजन । ध्यान के अभ्यासी को अन्दर में मालिक का दर्शन हो । तो साधक अपने को धन्य धन्य मानने लगता है । गुरू मूर्ति का दर्शन ध्यान तथा गुरू के नाम का जप । गुरू की आज्ञा का पालन करना सदा कर्त्तव्य है ।तथा गुरू के सिवाय और किसी का चिन्तन करना अनुचित है ।
मन में थोडा बहुत प्रेम उनके प्रति उत्पन्न हो सकता है । गुरू स्वरूप का तो उनके सामने जाने से साक्षात दर्शन होता है । यदि गुरू का ध्यान कोई साधक अन्दर में करे । तो सूफ़ी भाषा में इसे सदव्वुरे शेख कहते हैं । यह योग है । योग का अभ्यास गुरू के सानिध्य में करना चाहिये ।विशेषत: तंत्र योग के बारे में यह बात अत्यन्त आवश्यक है कि सचमुच में योग्यता वाला शिष्य नम्रता पूर्वक गुरू के पास आता है । गुरू को आत्म समर्पण करता है । गुरू की सेवा करता है । और गुरू के सान्निध्य में योग सीखता है । साधक की उन्नति के लिये विश्व में अवतरित परात्पर सत्ता सदगुरू ही हैं । गुरू को परमात्मा मानो । और उन्हीं के ध्यान में डूबे रहो । तभी आपको वास्तविक लाभ होगा । गुरू की अथक सेवा । भजन । सुमिरन । ध्यान करो । वे स्वयं ही आप पर ध्यान में जो दर्शन होने की कामना है ।उसको पूरा करने के लिये सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद की बरसात करेंगे । सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त ( सन्तुष्ट ) एवं शान्त चित्त वाले साधकों को जो सुख प्राप्त है । वह धन के लोभ से इधर उधर दौडने वाले लोगों को कहां प्राप्त हो सकता है ? गुरू अपने शिष्य को अपनी अमृत मयी वाणी की वर्षा कर करके । उसे आन्तरिक ज्ञान समझा समझा कर । अन्दर में ध्यान के द्वारा दर्शन की महिमा को बतला बतलाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कराते हैं । तभी तो पापों का विनाश होता है । जिस प्रकार एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित होती है । उसी प्रकार श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने मंत्र के भजन, सुमिरन और ध्यान में दर्शन देने के रूप में अपने दिव्य शक्ति शिष्य में संक्रमित करते हैं । शिष्य सन्तुष्ट होकर
अभ्यास करता है । बृह्मचर्य का पालन करता है । और शान्त चित्त होकर श्री सदगुरू के मंत्र के सदा सदा भजन । सुमिरन । ध्यान में सदगुण स्वरूप का दर्शन कर अपने जीवन को शीलवान, सन्तोषवान बनाता है । सन्तोष ही जीवन का सबसे बडा सुख है । अत: सुख चाहने वाले साधक सदा सन्तोष करते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में ही तो सारा सुख है । सुख शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करना मनुष्य या जिज्ञासु की मौलिक इच्छा है ।
जग का जीना है भला । जब लग हिरदय नाम ।नाम बिना जग जीवना । सो दादू किस काम ।
जीव को यह जो मनुष्य जन्म मिला है । तो इस जन्म को पा करके उसका फ़ायदा क्या है ? लाभ क्या है ? अगर साधक ने अपने ह्रदय में मालिक का नाम व रूप बसा लिया । यानी अन्दर में मालिक के नाम के सुमिरन और ध्यान में श्री सदगुरू देव जी महाराज का दर्शन कर लिया । तो समझो मालिक की भक्ति कर
लिया । और उसका जीवन सार्थक हो गया । साधक के जीवन की सार्थकता श्रीसदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान तथा मालिक की भक्ति करने में ही है । क्योंकि साधक ने भक्ति का सच्चा धन जमा कर लिया है । जो कि लोक परलोक का संगी साथी है । भक्ति का सच्चा धन साधक के लिये सदगुरू का भजन, भक्ति तथा अन्दर में ध्यान के माध्यम से सदगुरू का दर्शन पाना ही है । और इसके करने से ही चित्त शुद्ध, पवित्र तथा निर्मल हो जाता है । चित्त के शुद्ध व पवित्र हो जाने पर श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा व दया से मन सहज ही एकाग्र चित्त हो जाता है । और एकाग्रता को पाप्त हुआ मन अपने ही ह्रदय में स्थित श्री
सदगुरू के दर्शन कर आत्म ज्ञान सम्पन्न हो जाता है ।मन को एकाग्र होकर जब आत्मा की ओर अग्रसर होने लगता है । तो कर्म आपसे आप छूटने लग जाते हैं । जिस अनुपात में ज्ञान उपलब्ध होता जाता है । उसी अनुपात में कर्म के बन्धन शिथिल होते जाते हैं ।
गुरू कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं हो पाता है । इसलिये सभी सन्त आन्तरिक दर्शन के लिये गुरू शरणागति की अनिवार्यता पर जोर देते हैं । यदि कभी कभार गुरू स्वरूप ध्यान में प्रगट न भी हो । तो उसकी कोशिश करके ध्यान पर ध्यान लगाते रहने से ह्रदय में मालिकके प्रति प्रेम, श्रद्धा की प्रगाढता बढती है । यह बात भली भांति समझ लेना चाहिये कि जो श्री सदगुरू का स्वरूप खुली आंखों के सामने देखते हैं । वह पंच महा भूतों का बना है । किन्तु जिस सदगुरू स्वरूप के अन्दर में दर्शन होते हैं । वह पंच महा भूतों का बना हुआ नहीं है । वरन वह चैतन्य है । चैतन्य मण्डल में अन्तर्यामी प्रभु अपने भक्तजनों के लिये श्री सदगुरू स्वरूप का आकार धारण करते हैं ।कहा है - जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।
वह चैतन्य आकार स्वरूप बराबर अभ्यासी के साथ साथ पथ प्रदर्शक बनकर सहायता करता रहेगा । और जितना जितना अभ्यासी ऊंचे चक्रों का ध्यान करेगा । उतना ही स्वरूप भी ऊंचे चक्रों में अधिक से अधिक निर्मल चैतन्य और ज्योतिर्मय होता जायेगा ।
सारांश यह है किश्री सदगुरू देव जी महाराज के स्वरूप का दर्शन । भजन और ध्यान के माध्यम से अन्दर होता रहे । तो शब्द स्वरूप । प्रकाश स्वरूप । गुरू स्वरूप अभ्यासी के साथ साथ रहेगा । और रास्ते में मन तथा सुरत के मिटाव और चढाई में बराबर सहाय के रूप में सदा साथ साथ रहेगा ।
श्री सदगुरू के ध्यान में सतत लीन रहने वाला शिष्य गुरू में उसी प्रकार विलीन हो जाता है ।

No comments:

Post a Comment