Friday, 4 April 2014

ज्ञान की अग्नि उत्पन्न हो कैसे

एक शराब पीने वाला शराबी क्यों लड़खड़ता है ? उसका अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं है । ऐसे ही हम व्यवहार में लड़खड़ाते हैं । क्यों लड़खड़ाते हैं ? कामादि विकारों के कारण । हम बार बार विचार करते हैं कि शरीर और मन पर नियन्त्रण करेंगे । पर नियन्त्रण का मार्ग साधना का मार्ग है । उस पर घीरे धीरे चलना पड़ता है । यथा बारहखड़ी लिखने में बच्चे को बहुत समय लगता है । प्रत्येक अक्षर , उसको अलग अलग समझना पड़ता है । शास्त्रकारों ने तो केवल सामान्य रूप से निर्देश कर दिया कि यदि मन संसार के भोगों की तरफ जाने लगे तो विचार से रोके । पर विचार कैसे हो ? विषयों के विकार ज्ञान से विचार आसान हो जाता है । इसी प्रकार प्राणायाम में वायु का निरोध है जिसे चक्रों में करना पड़ता है । मन की प्रत्येक वासना को एक एक करके सुखाना पड़ता है , जैसे समुद्र बून्द बून्द सुखाया जाय ।
नारायण ! शास्त्रों में अविद्या शब्द कर्म मार्ग के लिये बताया गया है । अन्तःकरण के लिये भाव रूप क्रिया की अपेक्षा है । आत्म तत्त्व की प्राप्ति तो ज्ञान से होगी पर मल को दूर करने का उपाय भी तो उपाय करना पड़ेगा । परमेश्वर का वास्तविक प्रेम तब तक उपलब्ध नहीं होगा जब तक मल रूपी दोष न हटेगा । ज्ञान का साधक समझता है कि ज्ञान के उत्पन्न होते ही सारे दोष अपने आप दूर हो जायेंगे। पर ज्ञान उत्पन्न होगा कैसे ? शास्त्रों को सुन कर और पढ़ कर एक वृत्ति का आभास उत्पन्न होता है । उससे ज्ञान की प्रतीति तो बनी , पर " असतो निवृत्तिः " यदि नहीं हुई ; काम क्रोधादि यदि अपने अन्दर रहे , तो ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ ही ऐसा समझें ।
नारायण ! ज्ञान की अग्नि उत्पन्न हो कैसे ? यदि लकड़ी ने आग पकड़ ली तो लकड़ी के ऊपर रखे बटलोई { भोजन बनाने का एक पात्र } के पानी को भी उड़ा देगी । पर यदि लकड़ी ही स्वयं गीली है तो आग पकड़ेगी ही नहीं । ज्ञानाग्नि सभी कर्मनाश में समर्थ है पर यदि पाप कर्म का मल हृदय में है तो ज्ञान उत्पन्न होगा ही नहीं । यद्यपि अविद्या और कर्म से बन्धन है तथापि " अविद्याप्युपकाराय नृणां जायते विषवत् " जैसे जहर रोग को दूर कर देता है वैसे ही अविद्या रूपी जहर मल को काटने के लिये आवश्यक है । यदि अच्छी चीज को भी गलत तरीके से करें तो वह खराब हो जाती है । ज्ञान भी यदि ठीक समय पर न हो तो बन्धन का हेतु हो जायेगा । यथा संग्रहणी का रोगी यदि घी पीले तो ताकतवर होने के बजाय मौत के घाट उतरेगा । अगर विद्या का गलत प्रकार से अनुष्ठान करेंगे तो बन्धन होगा । यह ध्रुव सत्य है ।
पहले शास्त्र का श्रवण करने से तब रुचि उत्पन्न होगी । परमेश्वर परमशिव की तरफ रुची उत्पन्न होते ही कई लोग कर्मों का त्याग कर देते हैं । जब तक मल दोष दूर नहीं होगा तब तक " तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि " की ही दशा रहेगी । कर्म में लगे रहना पड़ेगा । ज्ञान और ध्यान श्रेष्ठ है पर उसके लिये अधिकारी बने तभी । मल दोष दूर कर ज्ञान ध्यान के अधिकारी बनेंगे । तब तक कर्म करना है जब तक अन्तःकरण में तीव्र शक्ति नहीं आ जाती । अन्तर्लक्ष्य प्राप्तव्य है सही पर यह शक्ति मन को शोध कर ही मिलती है ।

No comments:

Post a Comment