Wednesday 25 June 2014

स्वरूप प्रकाश भान हो रहा है

ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, निज स्थान का निर्णय बता रहे हैं कि हे ! जो सहज निर्द्वन्द्व स्वरूप ब्रह्म है, उसको हम हृदय के भीतर ज्ञान रूप नेत्रों से सदा देखते हैं । जो तत् त्वम् पद का लक्ष्य स्वरूप है, उस अनूप को देखकर अब हमारा मन उसी में मोहित हो गया है । वह अविनाशी स्वरूप मन पावन सुरति के किनारे ही प्राप्त हुआ है । जुग - जुग में समूह सुखरूप, वही हमें प्रिय लगता था । उसको अब हम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना रूप स्थान में देख रहे हैं । अब तो आभास बुद्धिरूप सेवक, सोहं में स्वामी के साथ भगवत् - स्वरूप होकर स्थिर हो रहा है । काल - कर्म का बाण रहित यह स्वस्वरूप स्थान ही अब प्रिय लगता है । इस स्थिति में सेवक, स्वामी का रूप ही हो जाता है । नाना प्रकार के साधन करते - करते, इस प्रकार हमने अन्तर्यामी को प्राप्त किया है । उनके ब्रह्मतेज की कोई मिति प्रमाण नहीं है, वह असीम है । ऐसा ज्ञान - स्वरूप प्रकाश भान हो रहा है । उसके स्वरूप का कोई भी पार नहीं पाते । उसी का अब हमारा मन स्मरण कर रहा है ।

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