Wednesday 18 June 2014

सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए

आप जागे हुवे है या सोये है ?
"लक्ष्मण-निषाद संवाद" ध्यान से पढिये 
और मनुष्य जीवन के धेय को प्राप्त कीजिये

"जानिअ तबहिं जीव जग जागा। 
जब सब बिषय बिलास बिरागा॥"
जब निषादराज ने राम और सीता को धरती पर सोते हुए देखा, तब उसको बहुत दुःख हुआ। तब लक्ष्मण जी ने उसको ज्ञान, वैराग्य और भक्तिपूर्ण वाणी से समझाया...

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता। 
निज कृत करम भोग सब भ्राता॥
हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं।

जोग वियोग भोग भल मंदा। 
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। 
सम्पति बिपति करमु अरु कालू॥
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं।

धरनि धामु धनु पुर परिवारू। 
सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। 
मोह मूल परमारथु नाहीं॥
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं।

सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥
जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए।

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। 
काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। 
देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥
ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं।

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। 
परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। 
जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू। 
मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) हैं।

राम ब्रह्म परमारथ रूपा। 
अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। 
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥
श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते हैं।

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥
वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं।

सखा समुझि अस परिहरि मोहू। 
सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा। 
जागे जग मंगल सुखदारा॥
हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करने वाले और उसे सुख देने वाले श्री रामजी जागे। 
(अयोध्याकाण्ड दोहा ९१-९३)

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