Sunday 29 June 2014

क्या करामात है कुदरत की

तेरी इस दुनिया में ये मंज़र क्यों है,
कहीं ज़ख्म तो कहीं पीठ में खंजर क्यों है...
सुना है तू हर ज़र्रे में है रहता,
फिर ज़मीं पर 
कहीं मस्जिद तो कहीं मंदिर क्यों है...
जब रहने वाले दुनियां के हर बन्दे तेरे हैं, फिर
कोई किसी का दोस्त तो कोई दुश्मन क्यों है...
तू ही लिखता है हर किसी का मुक़द्दर, 
फिर कोई बदनसीब तो कोई मुक़द्दर का सिक्कंदर क्यों है!!! --
कोई रो कर दिल बहलाता है और कोई हँस कर दर्द छुपाता है.
क्या करामात है कुदरत की, 
ज़िंदा इंसान पानी में डूब जाता है और मुर्दा तैर के दिखाता है...

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