Monday 30 June 2014

अपनेआत्मतत्व का चितंन करें

ब्रह्माण्ड है, तब सेनाद है, जबसे नाद है तब सेनाथ सम्प्रदाय है।आदि शिवसे आरम्भहोकरअनेकसिध्दों के नाथ योगी शिवरूप देकरसत्य मार्गप्रकाश ही इस धंर्णा पर सिध्दों कीइस अखण्ड परम्परा केअन्तर्गत गुरूअपने शिष्यके इसपरम्परा की शक्ति व अधिकारसौंपते आये है।गूरूदृष्टि, स्पर्श, शब्द या संकल्पके द्वारा शिष्यकी सुप्त कुण्डलिनी शक्ति कोजगा दंतेहै। गोरख बोधवाणी संग्रह मेंसे श्री गुरू-शिष्यशंका समाधानविषयकएक संवाद, जिसमें गोरखनाथजीअपने गुरूदेव श्री मच्छंद्रनाथजी से मन की जिज्ञासाओंका निवारण करनेप्रश्न पूछते हैं औरगुरू मच्छंद्रनाथजी नाथ ज्ञानका बोध कराते हैं। मच्छंद्रउवाचके रूप मेंनाथ-शिक्षाबोधको सरल साहित्य मेंसमाविष्ट किया गया है। पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है प्राचीनभाव-प्रवचन :-
साधक कोचाहिएकि आरंभिकअवस्था में किसी एक जगह जगत प्रपंची में नरहें औरमार्ग, धर्मशाला या किसीवृक्ष की छाया में विश्वासकरें।संसारकि संसृति, ममता, अहंत कामना, क्रोध, लोभ, मोहवृत्ति की धारण्ााओं कोत्याग करअपनेआत्मतत्व का चितंन करें।कम भोजन तथानिद्रआलस्य को जीत कररहें।अपने आप को देखना, अनंत अगोचरको विचारना औरस्वरूपमेंवासकरना, गुरू नामसोहंशब्द ले मस्तकमुंडावेतथा ब्रह्मज्ञान कोलेकर भवसागरपारउतरनाचाहिए।मनका शुन्य रूपहै।पवन निराकार आकारहै, दम कीअलेखदशा औरदसवें द्वारकी साधना करनी चाहिए।वायुबिनापेड़ के डाल (टहनी)है, मन पक्षी बिना पंखों के, धीरजबिना पाल (किनारे)की नार(नदी)बिना काल रूप नींद है। सूर्य स्वरअमावस, चन्द्र स्वरप्रतिपदा, नाभि स्थानका प्राण रस लेकर गगनस्थानचढ़ता है औरदसवें मन अंतर्ध्यानरहता है। आदि का गुरू अनादि है। पृथ्वी का पति आकाश है, ज्ञानका चिंतन मेंनिवासहै और शून्य का स्थानपरचा (ब्रह्म)है।मन केपर्चे (साधे-वश करने)से माया-मोह की निवृति, पवनवश करनेसे चन्द्र स्वर सिध्दि तथा ज्ञान सिध्दि सेयोगबन्ध(जीव-ईश्वर एकता), गुरू कीप्रसन्नता से अजरबन्ध(जीवनमुक्ति तत्व)सिध्दि प्राप्त होती है। शरीरमेंस्वरोदय इडानाड़ी तथा त्रिकूटी स्थानेदो चन्द्र स्थान, पुष्पों मेंचैतन्य सामान्य गंधपूर्ण रहती है।दूधमें घी अन्तरहित व्याप्त तथा इसी प्रकार शरीरके रोमांश में जीवात्मा की अव्यहृतशक्तिरहती है।अन्तरहित साधना मेंगगन (दसवें)स्थान चन्द्र (ज्ञान-ध्येय)औरनिम्ननाभिस्थाने अग्नि-नागनिनाड़ी मे सूर्य का निवासहैं।शब्द का निवास हृदय मेंहै, जो बिन्दू का मूल स्त्रोत केन्द्रहै।जीवात्मा पवन-कसौटी सेदसवेंचढ़करशान्ति बून्द को प्राप्तकरता है। अपनीशक्ति को उलटी कर स्थिरकी गई।मल, विक्षेप सहित दु:साध्य भूमिहो तो योग में कठिनाई है। नाभि के उडियानबंध से सिध्द मुर्ततथा साक्षी चेतन ही उनमुनि में रहता है।मूलाधार सेनाभि-प्रमाणचक्रसिध्दि सेस्वर सिध्दि होकरज्ञानप्रकारकरता है।जालन्धरबंधलगाकरअमृत प्राप्त करना औरनाभि स्थानेस्वाधिष्ठानसिध्दि से प्राणवायुका निरोध करना, हृदय स्थानेअनाहत चक्रमें जीवात्मा''सोहं''ध्वनि का ध्यान औरज्ञानचक्र(आज्ञा)में ज्योति दर्शनोपरांत ब्रह्मरंध्रमें विश्राम कीप्राप्ति होती है।

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