Monday 30 June 2014

ब्रह्मलोक में निवास करते हैं


आइये जानते हैं -----शिव को लिंगाकार मानने का रहस्य ?

अज्ञान के कारण या 'लिंग' के सीमित अर्थ की जानकारी के कारण इसके बारे में अश्लील कल्पना करते हैं। वास्तव में 'लिंग' शब्द के कई अर्थ हैं। एक तो व्याकरण में 'लिंग' शब्द का प्रयोग 'स्त्री वर्ग' या 'पुरुष वर्ग' के विभाजन के लिए होता है। संसार में सभी जीव या तो पुर्लिंग हैं या स्त्रीलिंग या नपुंसक लिंग। क्योंकि शिव पिता भी हैं और माता भी हैं। मनुष्य की समझ में कोई ऐसा शरीर नहीं हो सकता । इसलिए शिव स्त्रीलिंग-पुर्लिंग से भिन्न तथा अशरीरी यानी केवल एक ज्योति बिंदु हैं । किन्तु हम उस ज्योति को देखें कैसे ? बिना प्रतीक के पूजें कैसे ? अतः उसके प्रतीक स्वरूप में ज्योतिर्लिंग की कल्पना की गई। कई लोग कहते हैं कि 'लिंग' शब्द में 'लिं' का अर्थ है अव्यक्त वस्तु और 'गम' का अर्थ है उसे जतलाने वाले चिन्ह । शिव अव्यक्त ज्योति बिंदु हैं और लिंग उनका अव्यक्त चिन्ह है। 
हमारे न्याय दर्शन में कहा गया है कि कामना और प्रयत्न 'आत्मा' के लिंग अर्थात लक्षण या चिन्ह हैं । इसी प्रकार वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि 'पीछे, पहले, एक साथ, देर से और झटपट आदि व्यवहार 'काल के लिंग' अर्थात लक्षण या चिन्ह हैं। ब्रह्म सूत्र में भी 'लिंग' शब्द इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । 'ज्योतिर्लिंग ‘ अथवा ‘शिव लिंग' का भावार्थ यह है कि परमात्मा ज्योतिस्वरूप है और 'शिवलिंग' उसका स्थूल चिन्ह है । शिव तो ब्रह्म तत्व में निवास करते हैं, जैसे कि हम मनुष्य आकाश (ब्रह्मांड) में निवास करते हैं। जैसे आकाश की कोई प्रतिमा नहीं बनाई जा सकती, परंतु मनुष्यों की बनाई जा सकती है, वैसे ही ब्रह्मा तत्व की कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती, लेकिन ज्योतिर्लिंग की प्रतिमा बनाई जाती है। 
पुराणों में शिव के रूप को अंगुष्ठाकार और दीपक की लौ के समान कहा गया है। इस बारे में 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' के सूत्र की ऐसी व्याख्या मिलती है कि जैसे पिण्ड में आत्मा सर्वव्यापक नहीं है बल्कि भृकुटि में निवास करती है, वैसे ही शिव भी तीनों लोकों में व्याप्त नहीं हैं बल्कि ब्रह्मलोक में निवास करते हैं।

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