Tuesday 24 June 2014

चित्त एकाग्र करके सुखपूर्वक

योग शास्त्र के अनुसार महत्व पूर्ण योगो का सारांश|
१- हठ योग:- “ ह “ से सूर्य और “ ठ “ से चन्द्रमा अर्थात दाहिने [सूर्य] और बाँए [चन्द्रमा] नासारंध्रो से बहने वाली इडा और पिंगला नाडी| इन दोनों के संयोग से सुषुपना नाडी के उत्थान तथा षटचर्कों के भेदन को हठयोग कहते हैं| कुछ लोग हठयोग और राजयोग को भिन्न भिन्न मानते हैं परन्तु गीता, हठयोग प्रदीपिका और गोरक्ष संहिता आदि में हठयोग को राजयोग की नीव बतलाया गया हैं|
२- राजयोग:- किसी स्थिर आसन और किसी मुद्रा (शाम्भवी आदि) द्वारा चित्त एकाग्र करके सुखपूर्वक आत्मसत्ता का अभाव होकर केवल एक परमात्म भाव का रह जाना तथा अर्थात मनोनिरोध से प्राणों का निरोध होने को राजयोग कहते है|
३. आष्टांग योग:-इन्द्रियो को रोककर, मन को ह्रदय में स्थिर कर, प्राणों को मस्तक में स्थापन करके, धारणा में स्तिथ होना तथा अपान वायु को प्राणवायु में, प्राणवायु को अपान वायु में हवन करते हैं और प्राण एवं अपान दोनों की गति को रोककर प्राणायाम में परायण होने को आष्टांग योग कहते हैं|
४. लय योग:-स्थिर आसन में बैठकर षडमुखी मुद्रा में मन को अनहद शब्द या नाद श्रवण, दिव्य प्रकाश या मूर्ति विशेष में मन को लय करने अर्थात प्राण शक्ति, कुण्डलनी शक्ति, मन की बृत्तियां इन सबको लय कर देना ही लय योग हैं|
५. ध्यान योग:- एकाग्र चित्त द्वारा शुद्ध, पवित्र और एकाग्र स्थान में योग्य आसन में बैठकर सांसारिक चिन्तन का सर्वथा अभाव करके एकमात्र ईश्वर का ही चिन्तन करना, इसे ध्यान योग कहत हैं|
६. कर्म योग:- फल और आशक्ति को त्यागकर, कर्तव्य बुद्धी से समत्व भाव रखते हुये, विहित कर्मो को करना अर्थात निष्काम कर्म करने को कर्म योग कहते हैं|
७. भक्ति योग:- साकार भगवान् को स्वामी समझकर अनन्य श्रधा से युक्त होकर चित्त को उनमें तन्मय कर देना ही भक्ति योग हैं|
८. सांख्य योग:- अहंता और ममता को नष्ट करके सर्वव्यापी परमात्मा को आत्मस्वरूप में एकीभाव से स्थिर होने को सांख्य योग कहते हैं|
९. मन्त्र योग:- मन्त्र जाप द्वारा मन को लय करना ही मन्त्र योग हैं|
१०.ग्यान योग:-यम, नियम, हठयोग एवं राजयोग का साधन करते करते समाधि द्वारा पूर्ण ग्यान प्राप्त करने को ही ग्यान योग कहा गया हैं| 

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