Saturday 28 June 2014

इसका कारण बतलाइए

कलियुगवासियों को संसारी मायामोह , स्त्री व पुत्र , द्रव्य व सुख में फँसे रहने से किसी समय जैसा चाहिय वैसा सावकास नहीं रहता , जो मन अपना बीच भजन व स्मरण परमेश्वर के लगावें ! कलियुग में आयुर्बल आदमी का बहुत कम होकर मरने का ठिकाना नहीं रहता , जिस पर भी रात दिन कमाने खाने की चिंता में रहकर अपने मरने व परलोक का डर नहीं रखता , इसलिए मनुष्य तन पाकर पाहिले वह काम करना चाहिए जिसमे श्रीकृष्णजी महाराज त्रिभुवनपति जिन्होंने आदमी को अपनी महिमा से उत्पन्न किया है प्रसन्न होवें व अपना परलोक बने !
मनुष्य तन पाने का यही फल है कि आठ पहर में किसी बेला परमेश्वर को अपने मन से न भुलावे ! आदमी का चोला कलियुग में अनेक अपराध व पापों से भरा रहकर सिवाय बुराई के कोई भलाई इससे नहीं बन पड़ती ! इसी वास्ते परब्रहम नारायण ने वेदव्यासजी का अवतार लेकर पोथी श्रीमद्भागवत को सब वेदों का सार निर्माण किया !
श्रीशुकदेवजी महाराज ने यह अमृतरूपी कथा संसारी जीवों को पापों से भवसागर पार उतरने के वास्ते जगत में प्रकट किया है ! जिस तरह अमृत पीने से जीव अमर होकर नहीं मरता उसी तरह जो कोई इस कथा को प्रीती से सुने और तदनुरूप सदाचरण करे वह आवागमन से छूटकर मुक्ति-पदवी पर पहुँच जाता है ! आदमी इस अमृत रुपी कथा को नित्य पढ़े व सुना करे तब उसको मालुम होगा कि इसमें क्या गुण और लाभ है , जब तक कोई इस कथा को नहीं पढता व सुनता तब तक उसका सुख नहीं पाता ...

शौनकादिक अट्ठासी हजार ॠषीश्वरों ने बीच स्थान नैमिसरान्य तीर्थ के, सूत पौराणिक शिष्य वेदव्यासजी से कहा कि तुम कोई लीला परमेश्वर कि ऐसी वर्णन करो जिसमे भक्ति व ज्ञान व वैराग्य अधिक हो ! इस घोर कलियुग में ज्ञान संसारी आदमियों का पशु के सामान हो गया है , इसलिए कोई सुख से न रहकर सब किसी को काम-क्रोध-लोभ व मोह उत्पन्न हुआ की आठों पहर उसी दुःख में व्याकुल रहते हैं ! कोई ऐसा चरित्र भगवान् का वर्णन कीजिए जिससे कलियुगवासियों को हरिचरणों में भक्ति व प्रीती उत्पन्न होकर सुख मिले !
यह बात सुनकर सूतजी बोले कि तुम लोगों ने बहुत अच्छी बात कलियुगवासियों के उद्धार करने के वास्ते पूछी जो कालरूपी साँप के मुँह में पड़े हैं ! सो वह कथा श्रीमद्भागवत है जो शुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित से कही थी !
जिस समय राजा को श्रृंगीॠषि के शाप देने के उपरान्त ॠषीश्वरों व मुनीश्वरों की सभा में शुकदेवजी ने गंगा किनारे आकर कथा श्रीमद्भागवत सुनाना आरम्भ किया उस समय देवताओं ने अमृत का कलश वहाँ लाकर शुकदेवजी से कहा माहराज यह अमृत का घड़ा आप लीजिए व हमलोगों को कथारूपी अमृत पिलाइये !
यह बात सुनकर शुकदेवजी बोले , तुम्हारा अमृत हमारे काम का नहीं है , इस अमृत को पीने से आयुर्दा आदमी की देवता के बराबर होती है और ब्रह्मा के एक दिन में चौदह इन्द्र बदल जाते हैं ! तुम्हारे अमृत से उत्तम यह कथारुपी अमृत भगवान का चरित्र है जिसके पढ़ने सुनने व आचरण में लाने से जीव अमर होकर कभी नहीं मरता व मुक्तिपदवी पर पहुँचकर आवागमन से छूट जाता है ! इसलिए राजा परीक्षित तुम्हारा अमृत पीने की इच्छा न रखकर भागवतरुपी अमृत पीना चाहता है ...

इतनी कथा सुनाकर सूतजी ने कहा कि नारद मुनि को सनकादिक ने सप्ताहपरायण श्रीमद्भागवत का सुनाकर उस कथा सुनने की विधि भी बतलाई है ! यह बात सुनकर शौनकादिक ऋषिश्वरों ने सूतजी से पूछा कि नारद मुनि तो दो घड़ी से अधिक कहीं ठहरते नहीं थे वह वहाँ किस तरह एक जगह रहे , जो उन्होंने सप्ताहपरायण सुना , और सनकादिक का दर्शन भी तो जल्दी किसी को नहीं मिलता वह नारद मुनि को कैसे मिले , और यह सप्ताहयज्ञ कहाँ पर हुआ था इसका हाल सुनाइये !
यह वचन सुनकर सूतजी बोले कि एक समय सनक , सनन्दन , सनातन व सनत्कुमार चारों भाई घुमते हुए बदरिकाश्रम में आये , उन्होंने नारदजी को पहले से वहाँ उदास बैठे देखकर पूछा कि हे नारदजी ! आज तुम मलीनस्वरुप चिन्ता में किस वास्ते बैठे हो और किस बात का शोच तुमको है !
नारदजी ने चारों ऋषिश्वरों को प्रणाम करके कहा कि हमें जिस बात की चिंता है सो सुनिए ! हमने सब तीर्थ व गया आदि में जाकर देखा तो उन तीर्थों पर कलियुग ने सब जीवों को संसारी माया में ऐसा फँसा रक्खा है कि सत्य व तप , आचार व दया व दान कलियुग में सब जाता रहा , केवल अपने पेट पालने की चिंता में सब मनुष्य विकल रहकर झूठ बोलते हैं व अभागी व पाखंडी होकर माता व पिता की सेवा नहीं करते ! स्त्री व साले व ससुर की आज्ञा में रहकर द्रव्य के लालच से अपनी बेटी नीचकुल में बेचते हैं ! जहाँ देखो वहाँ म्लेच्छ व शूद्रों की बढ़ती दिखलाई देकर ब्राह्मण व क्षत्रिय अपने कर्म व धर्म से रहित देख पड़ते हैं !
मैं किसी को अपने धर्म पर स्थिर न देखकर जब चारों तरफ से फिरता हुआ मथुरा में यमुना किनारे पहुँचा तब वहाँ पर यह आश्चर्य की बात दिखलाई दी कि एक स्त्री युवती बैठी रोती है और दो मनुष्य बूढ़े उसके पास अचेत पड़े हैं और वह स्त्री चारों तरफ इस इच्छा से देख रही थी कि कोई आदमी मेरी सहायता करने वाला आनकर प्राप्त हो ! जैसे उसने मुझे वहाँ पर देखा वैसे खड़ी होकर बोली , महाराज आप एक क्षण ठहरकर मेरा दुःख सुन लीजिये , मेरे बड़े भाग्य थे जो आपने मुझे दर्शन दिया ! तब मैंने उस स्त्री से पूछा कि तू कौन है और यह दोनों पुरुष जो अचेत पड़े हैं इनका हाल बतलाओ , तो उसने कहा कि
मैं भक्ति हूँ और यह दोनों मेरे बेटे ज्ञान व वैराग्य हैं व इन पाँच सात स्त्रियों को जो यहाँ देखते हो यह सब गंगा व यमुना व सरस्वती आदि नदियाँ स्त्रीरूप धरकर मेरी टहल करने के वास्ते आयी हैं ! मैंने द्रविड़देश में जन्म लिया , करनाटक देश में सायानी होकर थोड़े दिन दक्षिण में रही , फिर गुजरात में जाकर बूढी हुई थी , अब वृन्दावन में आने से तरुण हो गई हूँ ! मेरे दोनों बेटे कलियुगवासियों के घोर पाप करने से ऐसे अचेत होकर पड़े हैं कि सामर्थ्य बोलने की नहीं रखते ! इनके लिए ही बहुत उदास रहती हूँ ! यह बड़ी लज्जा की बात है कि मेरे पुत्र बूढ़े रहें और मैं तरुण रहूँ ! यह हाल देखकर संसारी लोग मेरी हँसी करते हैं ! इसका कारण बतलाइए !
जब स्त्रीरूप भक्ति ने मुझसे यह हाल पूछा तब मैंने अपनी बुद्धि से विचारकर कहा कि अब घोर कलियुग आने से तेरी व ज्ञान व वैराग्य की कुछ मर्याद नहीं रही , केवल वृन्दावन आने से तू तरुण हो गई है , पर तेरे बेटों को कलियुग में कोई नहीं जानता ! इस कारण वह ज्यों के त्यों बूढ़े व निर्बल बने हैं ! यह बात सुनकर उसने कहा कि जो कलियुग ऐसा दुष्ट है तो राजा परीक्षित ने किस वास्ते दया करके प्राण उसका छोड़ा , जिस पर दया करने से सब लोगों का कर्म व धर्म जाता रहा उसे मार क्यों नहीं डाला !
तब मैंने उसको उत्तर दिया कि परीक्षित ने कलियुग में बड़ा गुण देखकर उसे नहीं मारा कि दुसरे युगों में हजारों वर्ष तक यज्ञ व तप व दान व धर्म करने से भी परमेश्वर का दर्शन जल्दी नहीं मिलता था सो कलियुग में केवल भजन व कीर्तन ( निष्काम सेवा ) करने से नारायणजी तुरंत प्रसन्न होकर दर्शन अपना देते हैं , पर कलियुगवासियों से सहज बात भी नहीं बन पड़ती , इसलिए कलियुग ने सब आदमियों का कर्म धर्म खो दिया है , तीर्थ में ब्राह्मण दान लेकर प्रायश्चित उसका नहीं करते , सब कोई काम व क्रोध व लोभ व अहंकार में भरे रहते हैं , कलियुग का यही धर्म है कि उसमें केवल परमेश्वर का भजन व स्मरण उत्तम समझना चाहिए !
यह बात सुनकर भक्ति ने कहा कि तुम धन्य हो , बड़े भाग्य से तुम्हारे दर्शन मुझे प्राप्त हुए ! आप सब किसी का दुःख छुड़ाने योग्य हैं सो कोई उपाय करके ज्ञान व वैराग्य को तरुण कर दीजिये , जिसमें मेरा दुःख छूट जावे , मैं तुमको बारंबार दण्डवत् करती हूँ !!

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