Thursday 11 September 2014

अब आप ही सहायता करो।

आज जो स्थिति है उसमें उस परम चेतन से मिलने की आकांक्षा रखने वाला जिज्ञासु/साधक भ्रमित हो जाता है। कितने गुरू, अधिकाशंत: स्वयंभू, कितने संप्रदाय, संप्रदायों के अनुसार कर्म-कांड, ज्ञानी कहते हैं कि हमारे ही मार्ग से "परमानन्द" मिलेगा। भक्ति-मार्ग के आचार्य कह रहे हैं कि सीधा सरल मार्ग हमारा है। निर्गुण को पूजने वाले, सगुण को मानने वाले से एक अनकहा सा वैर रखते हैं और सगुण वाले सोचते हैं कि यह क्या जानें, आनन्द क्या होता है। अलग-अलग संप्रदायों में भी अंदर से एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान नहीं रहा। ज्ञानी कहता है कि बिना वेद-शास्त्रों का अध्ययन किये "उसे" कैसे समझोगे तो कबीर कहते हैं कि -"ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय"। योगी कहते हैं कि योग के बिना चित्त-वृत्ति का निरोध संभव नहीं और दूसरी ओर भक्त रैदास, जूते गाँठते हुए कहते हैं कि -"जो मन चंगा, कठौती में गंगा"। कोई कहता है कि जाति विशेष को ही उससे मिलने का अधिकार है तो दूसरे कहते हैं कि "जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिये ज्ञान..."। कोई शैव है, कोई शाक्त, कोई रामानन्दी तो कोई कृष्ण के पीछे पागल तो कोई कलियुग में शीघ्र इच्छा पूरी करने वाले किसी अन्य देवता की शरण में है। ।नित्य नये संप्रदायों का गठन हो रहा है। नित्य नये "स्वयंभू" पीठाधीश्वर "पीठों" की रचना कर रहे हैं। शास्त्रों को और श्रीमदभगवद-गीता के अर्थों को अपनी "तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा अपने स्वार्थ के लिये" तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। यहाँ प्रत्येक के पास श्रीमदभगवत-गीता के दिव्य ज्ञान का उपदेश दूसरों के लिये है - " तुम्हारा क्या था ? तुम क्या लाये थे ? जो आज "तुम्हारा" है, कल किसी और का था और कल किसी "और" का होगा"। येन-केन-प्रकारेण अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ायी जा रही है और बड़े ही आश्चर्य की बात है कि इस कार्य में "पाखन्ड" बहुत सफ़ल है। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि इस भौतिक युग ने हमें संस्कारों, आचरण, प्रेम-दया और त्याग के गुणों से इतना दूर कर दिया है कि चेतना मृतप्राय सी हो गयी है और "स्वार्थ" को छोड़कर बुद्धि कुछ समझने को भी तत्पर नहीं है। यही कारण है कि "निजी इच्छाओं और कामना-पूर्ति हेतु लोग "शीघ्रताशीघ्र फ़ल" देने वाले "भगवान और बाबाओं" की शरण में जाते हैं। ऐसी अंध-भक्ति कि उसके लिये किसी भी स्तर पर जाने को तत्पर।
तो फ़िर किसके पास जाया जाये, कौन "उनसे" मिला देगा ? किस मार्ग का अनुसरण करें ? किसको गुरु बनावें ? गुरू को कैसे पहिचानें ? क्या उन्होंने पाया है ? जो माया को छोड़ने की कहते हैं, उनसे ही माया नहीं छूट रही। कथनी-करनी में बड़ा भारी अंतर चल रहा है। हे नाथ ! आपकी अहैतुकी कृपा के फ़लस्वरुप आपके पास आने की इच्छा हुयी और अब देखता हूँ तो मार्ग के स्थान पर बड़ी भारी भूल-भुलैया दिखती है। इससे तो संसार का मार्ग ही ठीक है, कम से कम मैं उसे समझता तो हूँ। अब आप ही सहायता करो। लोग कहते हैं कि तुम्हें पाना सरल है परन्तु देखता हूँ कि तुम्हारे पास आना ही कठिन है। बुद्धि कार्य ही नहीं करती।

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