Monday 29 September 2014

इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं।


‘ओम्’ शब्द पूर्ण शब्द है। ओम् में अ, उ, म तीन अक्षर हैं। इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओम’ बनता है। इसका प्रथम अक्षर ‘अ’ सभी शब्दों का मूल है, चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो। ‘अ’ जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ से उत्पन्न होता है। ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है। ‘उ’ कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है। इस प्रकार ओम् शब्द के द्वारा शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ से लेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओम में उन सभी ध्वनियों का समावेश है। फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं। अतः ओम् शब्दों की समष्टि है।
अब संक्षेप में ओंकार की रचना भी समझनी जरूरी है। ओंकार में अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं। ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं। ओंकार के दो स्वरूप हैं। अकार, उकार एवं मकार अशुद्ध विभाग हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन भूमिकाओं में इन तीन अवयवों का कार्य होता है। जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहली तीन मात्राओं में विद्यमान है। तुरीय या तुरीयातीत अवस्था चतुर्थ अवयव से शुरू होती है। अकार, उकार एवं मकार तीन शक्तियों के प्रतीक हैं - उकार ब्रह्मा का प्रतीक है तथा मकार महेश का प्रतीक है। प्रणव के चतुर्थ अवयव ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना तक कुल 9 अंश प्रणव के शुद्ध विभाग हैं। बिन्दु अर्द्धमात्रा रूपी अवयव है। बिन्दु में एक मात्रा का अर्द्धाशं है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका में अर्द्धचन्द्र अर्द्धांश है। इस प्रकार यह क्रम प्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है। यह क्रम समना तक चलता है। ये अंश या मात्राएं किसकी हैं ? ये वास्तव में मन की मात्राएं हैं। मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती है। उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है। मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती। योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशः सूक्ष्ममात्रा में होते हुए अमात्रक स्थिति में पहुंच जाए। उन्मना में न मन है, न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवता है। वह शुद्ध चिदानन्द - भूमि है।
ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है। बिन्दु का अनुभव भ्रूमध्य के ऊर्ध्व में होता है। ब्रह्मरन्ध्र की अन्तिम सीमा तक नाद का अनुभव चलता है। नादान्त भेद हो जाने पर स्थूल दृष्टि से देह का भेद हो जाता है। अतः नाद का अवलम्बन लेकर ही नादान्त तक पहुंचा जाता है। नाद साधना ही वस्तुतः ओंकार की साधना है। इस साधना में पारंगत होने पर केवल नाद का ही अतिक्रमण नहीं होता अपितु शून्य का भी अतिक्रमण होता है और अन्त में मन का भी अतिक्रमण होता है, जिसका फल है परमेश्वर से तादात्म्य लाभ।
इस प्रकार ओम् एक महामंत्र है। इसका जप और इसके अर्थ का चिन्तन समाधि-लाभ का उपाय है। वाचक एवं वाच्य का अभेद सम्बन्ध होता है। ज्यों ही वाचक शब्द का स्मरण अथवा उच्चारण किया जाता है त्यों ही वह उसके वाच्य पदार्थ का बिम्ब मन में ला देता है। ‘यत ध्यायति तत् भवति’ के अनुसार ‘ओम्’ शब्द के जप एवं स्मरण से हमारे मन में ब्रह्मभाव जाग्रत होता है। मन में यह भाव जगाए रहने के लम्बे अभ्यास के बाद अन्त में मन ब्रह्म भाव में अवस्थित हो जाता है। अतः ‘ओम्’ सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तक पहुंचने की कुंजी है।

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