Sunday 21 September 2014

जन्म हुआ और जगत के हो गये

ईश्वर के अत्यन्त प्रिय होने का दावा रखने और हो-हल्ला के बाबजूद भी सत्य तो यह है कि हमें अंधकार प्रिय है। हम इससे दूर होने की कल्पना में ही कष्ट और पीड़ा का अनिभव करने लगते हैं और अंत में उस "कल्पना" के स्वप्न को ही तिलांजलि दे देते हैं। हाँ बिना किसी कष्ट/प्रयन्त/साधन/आचरण के मिल जाये तो कृपा है। स्वयं को योग्य बनाकर तो हम "पा" ही लेंगे। हमने अंधकार में "प्रकाश" की अपनी ही कल्पना कर ली है और हमें अंधकार में भी प्रकाश प्रतीत होने लगता है क्योंकि हमने मान लिया है कि उसका "अस्तित्व’ है। प्रत्येक वस्तु और पदार्थ/प्राणी को देखने की हमारी अतिन्द्रिय़ क्षमता [जागतिक] विकसित हो गयी है। हम अंधकार में ही दर्पण देखते हैं और स्वयं पर मन्त्र-मुग्ध हो जाते हैं - "अहा ! कैसा दिव्य-रुप ! कैसे दिव्य-भाव ! अपना सभी सुन्दर ! कोई दोष नहीं; सर्वथा निर्दोष ! कौन ऐसा? अभी कुछ और भी संभावनायें हैं सुन्दर होने की; अब यही प्रयत्न करने हैं; बस और क्या?" हम स्वयं को अंधकार में देख रहे हैं; सुन्दर, गुणवान और अपने प्रियजनों को छोड़कर हमें संसार में किसी में यह गुण दृष्टिगोचर नहीं होते। किसी के उचित गुणों की प्रशंसा में भी यह भावना रहती है कि हम कितने उदार और विनम्र हैं। यह भावानायें हमारे जागतिक स्वभाव के अनुकूल होने के कारण हमें प्रिय हैं किन्तु हमारी मूल प्रकृति के विपरीत हैं।
जन्म हुआ और जगत के हो गये। स्वाभाविक; किन्तु कभी तो स्मरण हो कि ईश्वर ने हमें अपने सभी गुणों और क्षमताओं के साथ भेजा है; कभी तो स्वप्न से "जागने" की भी इच्छा जगे ! हमारी स्थिति ऐसी ही है जैसे किसी आवास में सभी मूलभूत सुविधायें हों किन्तु विध्युत-बोर्ड के ऊपर लगे खटके [स्विच] किसी कलाकृति की तरह लग रहे हों और न ही हमें विध्युत के अपने जीवन में उपयोग और प्रयोग का ज्ञान हो। जीवन चल रहा है, बिना विध्युत के भी। अत्यन्त सुख से क्योंकि ज्ञान ही नहीं है। ज्ञान "सुख और दु:ख:" का। ज्ञान जो मिला है अपने कल्याण के लिये दोहन का। अचानक किसी दिन उस विध्युत-बोर्ड को देखते-छूते हाथ से कोई स्विच दब गया और कक्ष की छत में छिपी किसी वस्तु से प्रकाश फ़ूट पड़ा। अरे यह क्या? प्रकाश में कक्ष में रखी सभी वस्तुयें अब एक अलग ही रुप में दिख रही हैं। दर्पण में अब कुछ और भी दिख रहा है; सुन्दरता के साथ-साथ असुन्दरता भी। प्रकाश सीमित ही है परन्तु अब कक्ष के भीतर स्थित वस्तु-पदार्थ के नवीन-रुप से परिचय हो रहा है।
कभी संसार को छोड़कर स्वयं के लिये भी चिंतन करें और पायेंगे कि कहीं कोई स्विच दब गया और प्रकाश दिख रहा है। अपनी वास्तविक स्थिति दिख रही है और साथ ही साथ इस असार संसार की भी। लगन लगी रही तो कोई आवेगा/मिलेगा और तुम्हें उस पूरे विध्युत-बोर्ड की जानकारी देगा ताकि कक्ष या आवास ही नहीं; तुम स्वयं भी भर जाओ प्रकाश से, जो तुम्हारा वास्तविक स्वरुप है। गुरु तुम्हें बताता है कि तुम्हारे पास क्या है? सभी ज्ञान तुम्हें है, तुम केवल इसे भूले हुए हो; गुरु तुम्हें इस बात का ज्ञान करा देते हैं। वे तुम्हारे भीतर स्थित विध्युत-बोर्ड का स्विच दबाकर तुम्हें प्रकाश का अनुभव करा देते हैं। वे स्मरण करा देते हैं कि अंधकार में जीने की प्रकृति जागतिक है। तू तो स्वयं प्रकाश है ! पन्च-भूत से परे भी तू है !
एक नयी दृष्टी ! नया अनुभव ! असत्य से सत्य की यात्रा ! अंधकार से प्रकाश की ओर ! जगत भी है पर हम जगत के नहीं ! उस पूर्ण का होने से जगत हमारा है; सभी अपने ही स्नेही-स्वजन है ! पराया है ही कौन? इतना ही अंतर है कि कोई जान गया और बाकी नहीं जानते। तो क्या? जो जान गया, उसकी जिम्मेदारी बढ़ गयी। तेरे भावे जो करै, भलो-बुरो संसार। नारायण तू बैठके अपनो भुवन बुहार॥ और फ़िर? माध्यम हो गया वो ! उसे तो पुकारना ही है - "जागते रहो ! जागते रहो।" उसे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई जागे न जागे अथवा नींद में खलल डालने के लिये अपशब्द ही कहे। उसे तो अपना कार्य करना है; वह भी स्वयं के लिये। ध्यान से सुनोगे तो चराचर ब्रह्मांड में एक ही गूँज है - "जागते रहो !  जय श्री राधे !

No comments:

Post a Comment