Thursday 25 September 2014

सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है

शब्द की शक्ति असीमित है। गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘सबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया। 
सबदहि सबद सूं परचा हुआ, सबदहि सबद समाया।।’
ऐसी विराटता है शब्द की। यह शब्द क्या है ? यह शब्द है ॐ (औंकार) सृष्टि की उत्पत्ति के समय Big Bang के रूप में ॐ शब्द का विस्फोट हुआ। शब्द से ही अन्य स्वर प्रकट हुए, सृष्टि संकुचन में भी इसी ॐ शब्द का संकुचन होगा। इसी ॐ महा शब्द के साथ अपने इष्ट का नाम जोड़कर हम किसी भी रूप में यथा ॐ शिव, ॐ नमः शिवाय ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ कृष्णाय, ॐ रामाय नमः आदि-आदि अपनी-अपनी श्रद्धा एवं विश्वास के अनुसार किसी भी शब्द को अपनी साधना का आधार बना सकते हैं। नये साधक के लिए जप बहुत जरूरी है। हमारी वाणी शुद्धि के लिए जप बहुत जरूरी है। ज्यों-ज्यों जप बढ़ता है, हमारे कायिक ब्रह्माण्ड में वह शब्द गूंजने लगता है।
साधना के लिए तीसरा आधार है - मन। मन को नियंत्रित कैसे किया जाए ? मन को ‘अमन’ कैसे किया जाए? अपने सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है। इस मन के प्रसंग में गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘यह मन शक्ति, यह मन शिव। 
यह मन पांच तत्व का जीव। 
यह मन ले जे उन्मन रहे। 
तो तीन लोक की बातां कहे।।
मन को ‘शिव’ बताया गया है, मन को शक्ति बताया गया है। यह मन ‘शक्ति’ रूप में हमें नचा रहा है, कठपुतलियों की भांति। यही मन ‘शिव’ बनकर हमें कल्याण का मार्ग दिखाता है। यह मन जड़ है, पर चेतन से मिलाने का यही एक मात्र आधार है। जिसने इस मन को ‘अमन’ कर दिया, वह सर्वज्ञ हो गया। बाबाजी महाराज ने मन के सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक उक्ति कही है:- 
‘मन की चाल चरित घणी, मन ही ज्ञान-अज्ञान। 
‘श्रद्धा’ मन को उलट दे, धरि उनमनि ध्यान।
यह उन्मनि ध्यान क्या है ? मन है - अज्ञान है, मन नहीं है-ज्ञान है। ‘उन्मनि ध्यान’ से तात्पर्य है-मन के अस्तित्व को समाप्त करना। मन के द्वारा मन को मारना। मन को मारने के लिए हमारे पास मुख्यतः ध्यान की तीन टेक्नीक है:- 
1. दृश्य - दर्शन 
2. नाद - श्रवण 
3. शून्य - विचरण 
नाथपंथ में ध्यान की तीन टेक्नीक को इस तरह सांकेतिक किया गया है -
‘अंखियन मांहि दृष्टि लुकाले, काना मांहि नाद। 
शून्य मां ही सूरता रमाले, यो ही पद निर्वाण।’
ध्यान का अर्थ है-गहराई में उतर कर देखना। जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत्त चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है - जानो और देखो। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, स्कूल मन के द्वारा सूक्ष़्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। पूरी साधना यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, ज्ञात से अज्ञात की ओर है। देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं है। जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं है। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है - देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे। हम जैसे-2 देखते चले जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। दृश्य दर्शन में आंख एवं मन का संयोग है। नाद श्रवण में कान एवं मन का संयोग है। शून्य विचरण में केवल मन का रमण है। पहले दो तरीके स्थूल हैं, सरल हैं, तीसरा तरीका जरा सूक्ष्म है, कठिन भी है।

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