Monday 22 September 2014

जीवन की कुंजी की खोज कर रहे हैं।


सारी साधुता एक ही धारणा पर टिकी है कि शरीर के साथ सब समाप्त नहीं होता। और जीवन का अर्थ इसी बात पर निर्भर है कि शरीर जब गिरता है तो कुछ बिना गिरा भी शेष रह जाता है। शरीर जब मिटता है मिट्टी में, तो सभी कुछ मिट्टी में नहीं गिरता। कुछ मेरे भीतर, कोई ज्योति, किसी और यात्रा पर निकल जाती है। मैं बचता हूं किसी अर्थों में।

अगर मैं बचता हूं तो ही मेरे जीवन का भेद बचता है। अगर मैं ही नहीं बचता, तो क्या भेद है? फिर तो शायद जिन्हें हम बुरा कहते हैं वे ही ज्यादा समझदार हैं। जिन्हें हम भला कहते हैं वे नासमझ हैं।

अगर आत्मा भी मरणधर्मा है, तो साधु मूढ़ हैं, ध्यानी अज्ञानी हैं। मंदिरों में पागलों की जमात है। क्योंकि वे जो भी कर रहे हैं, वह किसी अर्थ का नहीं है। फिर आप प्रार्थना करें या जुआ खेलें, बराबर है।

आत्मा अगर बचती है शरीर के बाद, तो ही मंदिर और गुरुद्वारा; और वेद कुछ अर्थ रखते हैं। महावीर, बुद्ध, कृष्ण में कुछ भेद है, कुछ राज है उनके पास। वे किसी महान जीवन की कुंजी की खोज कर रहे हैं।

लेकिन अगर शरीर के साथ सब समाप्त हो जाता है, तो कैसी कुंजी और किसकी खोज! तब जीवन एक व्यर्थ दौड़धूप

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