Wednesday 24 September 2014

गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं:-

1. शरीर 2. वाणी अर्थात् शब्द 3. मन।
साधक को सर्व प्रथम शरीर को जानना एवं साधना बहुत जरूरी है। शरीर बहुत बड़ा यंत्र है। विश्व की सबसे बड़ी फैक्ट्री भी इसके समक्ष छोटी पड़ती है। पूरे शरीर में 60 खरब न्यूरोन, सेल हैं जो स्वायतशासी हैं। प्रत्येक सेल 11 जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। बिजली बनाता है, अपने क्षेत्र में बिजली सप्लाई करता है, ज्ञानग्राही तन्तुओं से सूचना प्राप्त करता है, ज्ञानग्राही तंतुओं से सूचना मस्तिष्क एवं शरीर में फैलाता है, क्रियावाही तंतुओं को कार्य के लिए सूचित करता है। एक सेल, एक अदना सा सेल 1 लाख तक सूचनाएं संग्रहीत कर सकता है। मस्तिष्क में 1 खरब सेल एक साथ सक्रिय हैं। लाखों-करोड़ों स्मृतियों के प्रकोण हैं। लाखों-करोड़ों आवेशों के प्रकोष्ठ हैं सबकी स्वचालित व्यवस्था है। पूरे ज्ञान तंतुओं की लम्बाई 1 लाख मील है जबकि पूरी पृथ्वी का क्षेत्रफल 25 हजार वर्ग मील है। सामान्यतया हम हमारी क्षमता का मात्र 5 प्रतिशत प्रयोग करते हैं। कुछ लोग इससे भी कम प्रयोग कर पाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुषों ने अपनी क्षमता का मात्र 20 प्रतिशत प्रयोग किया है। विश्व का पूरा उद्योग तंत्र, राजतंत्र एवं समाज तंत्र इस शरीर तंत्र के समक्ष बहुत छोटा है। इसीलिए ‘पिण्डे सो ब्रह्माण्डे’ कहा गया है। पहला कार्य है-शरीर तंत्र की विराटता को समझे। दूसरा कार्य है- शरीर को निवृत्त करना और प्रवृत्त करना। प्रवृत्त करने में आसन, प्राणायाम, स्वांस की क्रियाएं, बैठने की सारी मुद्राएं आ जाती है। शरीर को निवृत्त करने का अर्थ है - शरीर को सारी क्रियाओं से मुक्त कर हल्का बना देना मानो कि शरीर है ही नहीं। शरीर को साधने के लिए अभ्यास जरूरी है। यदि एक आसन में हम एक घंटा भी नहीं बैठ पाते हैं, तो साधना करना बिल्कुल संभव नहीं है। अभ्यास में साधना क्रम ही तो है। साधना के लिए शरीर को साधना बहुत जरूरी है। गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं:-
‘आसन दृढ़ आहार दृढ़ जे निद्रा दृढ़ होय। 
गोरख कहे सुनो रे पूता, मरे न बूढ़ा होय।।

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