Tuesday 23 September 2014

यह उद्धार कैसे संभव है? उद्धार के लिए वैराग्य भाव चाहिए

प्रश्न है, यह उद्धार कैसे संभव है? उद्धार के लिए वैराग्य भाव चाहिए या अभ्यास चाहिए। वैराग्य का अर्थ है जो पूर्णतया राग मुक्त हो गया हो। जो जीतने की कामना करता है उसे ही हार का भय सताता है। वैराग्य का अर्थ है-पूर्ण अनासक्ति। वैराग्य में केवल अनुराग बचता है और सब छूट जाते हैं। पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए वैरागी होना संभव नहीं है। वैराग्य या तो प्रारब्ध कर्मवशात् उत्पन्न होता है या फिर अभ्यास के द्वारा प्राप्त हुई अनुभूति के कारण पैदा होता है। बूढ़े, रूग्ण एवं मृत व्यक्तियों को हम देखते ही हैं पर हमसे से कितनों को वैराग्य होता है पर बुद्ध ने ज्यों ही बीमार, बूढ़ा एवं मृत को देखा, वैराग्य हो गया। तुलसीदास ने अपनी पत्नी की एक झिड़की पर ही संसार से मुख मोड़ लिया। निमित्त पाकर प्रारब्ध कार्य जागे, वे प्रभु प्रेम में लीन हो गए। भर्तृहरि को उसकी पत्नी ने धोखा दिया, वे अलख जगाने राजमहल से निकल पड़े। ऐसे हजारों उदाहरण आध्यात्मिक इतिहास में मिल जाएंगे, जब एक छोट सा निमित्त पाकर व्यक्ति वैरागी हो गया।
समाधान यही मिलता है कि वैराग्य भाव प्रारब्ध कर्मजन्य है तो फिर बचता है अभ्यास। अभ्यास हर व्यक्ति, जो रूचि रखता है, कर सकता है। अभ्यास का अर्थ है-पुरुषार्थ। पुरुषार्थ का अर्थ है-वर्तमान में जीना। महावीर ने कहा है-‘खणं जाणिए पंडिए’-साधक तुम क्षण हो जानो’ क्षण को जानना ही पुरुषार्थ है। हम या तो भूतकाल में जीते हैं या फिर भविष्य में। वर्तमान में जीना हमें नहीं आता। वर्तमान में जीने का अर्थ है-पुरुषार्थ करना, अभ्यास करना। अभ्यास के लिए हमारे पास तीन आधार हैं 

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