Friday 19 September 2014

सारी उलझन है हमारे अन्दर

"धर्म अर्थात् महाविज्ञान..धर्म 
अर्थात् हमारी चेतना का ठहराव..
धर्म अर्थात् एक समझ...
जिसकी वजह से मनुष्य,पशुता से
ऊपर उठ कर देवत्व की तरफ
बढ़ा....
धर्म अर्थात् मनुष्यता की प्राणवायु,
मनुष्यता की श्वॉस....
कुछ भी नही ऐसा बाहर,जिसमें
मनुष्य फँसे,जिसमें इंसान उलझे..
कोई जाल नही,कोई फंदा नही..
ना कोई धर्मजाल है ना कोई माया
जाल...
बाहर कोई उलझन है ही नही...
सारी उलझन है हमारे अन्दर..
अन्दर से उलझे हुए व्यक्ति के 
लिए,सम्पूर्ण सृष्टि एक जाल है,
एक भटकाव.....
और अन्दर से सुलझे हुए व्यक्ति
के लिए सम्पूर्ण सृष्टि एक क्रीड़ा
स्थल...
ध्यान रहे..दृष्टिहीन एवं 
अस्थिर चेतना के लिए सीढ़ी भी
रास्ते का पत्थर बन सकती है...
दृष्टिवान एवं विवेकशील के लिए
रास्ते के पत्थर भी सीढ़ी हेतु 
उपयोग में लाये जा सकते हैं...
और इसी दृष्टि एवं विवेक को
कहते हैं...धर्म...
इसी दृष्टि एवं विवेक की
प्राप्ति की क्रिया "साधना" कही
जाती है...
सम्पूर्ण साधना की मात्र एक ही
सम्यक
उपलब्धि हो सकती है..व्यक्ति का 
धार्मिक हो जाना...

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