Tuesday 23 September 2014

ऐसा अनूठा प्रयोग पृथ्वी पर फिर कभी दुबारा नहीं हुआ

तो हम दूसरे चरण में उसे गृहस्थ बनाते थे। ऐसा अनूठा प्रयोग पृथ्वी पर फिर कभी दुबारा नहीं हुआ। और जब तक यह प्रयोग दुबारा नहीं होता, पृथ्वी अत्यंत दुख और पीड़ा से भरी रहेगी।

बाहर जाने के पहले भीतर पैर मजबूती से जम जाने चाहिए। धन पर हाथ पड़े इसके पहले स्वयं की संपदा का अनुभव हो जाना चाहिए। फिर धन साधन होगा। फिर हम उसका उपयोग कर लेंगे, लेकिन धन फिर हमारा मालिक न हो पाएगा।

तो ब्रह्मचर्य के बाद हम भेजते थे उसे गृहस्थ में, कि जाए घर में, विवाह करे, संतति हो उसकी। संसार को देखे, संसार को जीए। लेकिन यह व्यक्ति और ढंग से जीता था। इसके जीने का गुण ही अलग था। क्योंकि यह व्यक्ति साक्षी हो पाता था। हम साक्षी नहीं हो पाते, हम भोक्ता हो जाते हैं।

भोक्ता होना पीड़ा है। साक्षी होना परम आनंद है। और साक्षी को अगर हम नर्क में भी डाल दें, तो भी दुख में नहीं डाल सकते। और भोक्ता को हम स्वर्ग में भी रख दें, तो भी हम दुख के बाहर नहीं ले जा सकते। भोगी मन दुखी होगा ही। क्योंकि भोगी मन के लक्षण हैं कुछ। भोगी मन का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी मिल जाए वह कम मालूम होता है। भोगी मन का दूसरा लक्षण यह है कि उसे जो भी मिल जाए वह व्यर्थ मालूम होता है; जो नहीं मिलता वही सार्थक मालूम होता है। भोगी मन का तीसरा लक्षण यह है कि उसकी वासना अनंत होती है और वासना की पूर्ति के साधन सदा सीमित हैं।

इसलिए भोगी मन को कभी भी किसी तरह के सुख में प्रविष्ट कराना असंभव है। वह हर जगह दुखी होगा। दुख उसके भीतर पैदा होता है। हर चीज उसके दुख में रंग जाती है।

साक्षी को दुखी करना असंभव है। क्योंकि साक्षी के भी वैसे ही लक्षण हैं। साक्षी का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी घटना घटती हो, वह उससे अपने को पृथक मानता है। जो भी घट रहा हो, वह उससे. अपने को फासले पर देखता है। वह जानता है कि मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो अगर दुख घट रहा है तो वह दुख का भी देखने वाला है। वह दुख के साथ एक नहीं हो पाता। और जब तक आप दुख के साथ एक न हों, तब तक दुखी नहीं हो सकते।

साक्षी मन का दूसरा लक्षण है कि जो भी मिल जाए वह उसके लिए अनुगृहीत होता है। जो भी मिल जाए, वह उसे परमात्मा की अनुकंपा मानता है। जो भी मिल जाए, वह उसे अपने कर्तृत्व का फल नहीं मानता, उसकी अनुकंपा मानता है। क्योंकि साक्षी कर्ता तो बनता ही नहीं, इसलिए वह यह तो कह ही नहीं सकता कि मैंने किया इसलिए मुझे मिला! वह सदा यही कहता है कि मैंने तो कुछ भी नहीं किया और यह सब मुझे मिला, इसलिए मैं अनुगृहीत हूं। उसके अनुग्रह की कोई सीमा नहीं है। उसके धन्यवाद का, आभार का अहोभाव अनंत है। इसे समझ लें।

साक्षी का मतलब ही यह है कि वह जानता है, मैंने कभी कुछ नहीं किया। मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो जो कुछ भी हुआ है, वह मेरे द्वारा नहीं हुआ है, उसमें मैं कर्ता नहीं हूं। इसलिए जो भी हो जाए, वह प्रभु की अनुकंपा है।

साक्षी से सुख को छीनना असंभव है। साक्षी उस कला को जानता है, जिससे उसके चारों तरफ सुख फैलता है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से जाले को निकालकर निर्मित करती है, वैसा ही भोक्ता अपने चारों तरफ दुख का जाल निर्मित करता है और साक्षी अपने चारों तरफ सुख का जाल निर्मित करता है।

फिर साक्षी की कोई वासना नहीं है। क्योंकि जब मैं कर्ता हो ही नहीं सकता, तो करने की कोई कामना व्यर्थ है। और जिसकी कोई वासना नहीं है, जिसकी कोई अपेक्षा नहीं है, उसे आप कभी भी दुखी नहीं कर सकते। दुख आता है अपेक्षा के टूटने से।

मैंने सुना है कि एक आदमी बहुत उदास और दुखी बैठा है। उसकी एक बड़ी होटल है। बहुत चलती हुई होटल है। और एक मित्र उससे पूछता है कि तुम इतने दुखी और उदास क्यों दिखाई पड़ते हो कुछ दिनों से? कुछ धंधे में कठिनाई, अड़चन है? उसने कहा, बहुत अड़चन है। बहुत घाटे में धंधा चल रहा है। मित्र ने कहा, समझ में नहीं आता, क्योंकि इतने मेहमान आते—जाते दिखाई पड़ते हैं! और रोज शाम को जब मैं निकलता हूं तो तुम्हारे दरवाजे पर होटल के तख्ती लगी रहती है नो वेकेंसी को, कि अब और जगह नहीं है, तो धंधा तो बहुत जोर से चल रहा है! उस आदमी ने कहा, तुम्हें कुछ पता नहीं। आज से पंद्रह दिन पहले जब सांझ को हम नो वेकेंसी की तख्ती लटकाते थे, तो उसके बाद कम से कम पचास आदमी और द्वार खटखटाते थे। अब सिर्फ दस—पंद्रह ही आते हैं। पचास आदमी लौटते थे पंद्रह दिन पहले; जगह नहीं मिलती थी। अब सिर्फ दस—पंद्रह ही लौटते हैं। धंधा बड़ा घाटे में चल रहा है।

अपेक्षा से भरा हुआ चित्त निश्चित ही दुखी होगा।

मैं एक घर में मेहमान था। गृहिणी ने मुझे कहा कि आप मेरे पति को समझाइए कि इनको हो क्या गया है। बस, निरंतर एक ही चिंता में लगे रहते हैं कि पाच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने मुझे कहा कि मेरी समझू में नहीं आता कि नुकसान हुआ कैसे! नुकसान नहीं हुआ है। मैंने पति को पूछा। उन्होंने कहा, हुआ है नुकसान, दस लाख का लाभ होने की आशा थी, पांच का ही लाभ हुआ है। नुकसान निश्चित हुआ है। पांच लाख बिलकुल हाथ से गए।

अपेक्षा से भरा हुआ चित्त, लाभ हो तो भी हानि अनुभव करता है। साक्षीभाव से भरा हुआ चित्त, हानि हो तो भी लाभ अनुभव करता है। क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया, और जितना भी मिल गया, वह भी परमकृपा है, वह भी अस्तित्व का अनुदान है।

तो गृहस्थ हम बनाते थे व्यक्ति को, जब वह भीतर के साक्षी की थोड़ी—सी झलक पा लेता था। फिर पत्नी होती थी, लेकिन वह कभी पति नहीं हो पाता था। फिर बच्चे होते थे, वह उनका पालन करता था, लेकिन कभी पिता नहीं हो पाता था। मकान बनाता था, दुकान चलाता था, लेकिन सब ऐसे जैसे किसी नाटक के मंच पर अभिनय कर रहा हो। और प्रतीक्षा करता था उस दिन की, कि वह जो भीतर की यात्रा पच्चीस वर्ष की उम्र में अधूरी छूट गई थी, जल्दी से उसे पूरा करने का कब अवसर मिले। तो पचास वर्ष की उम्र में वह वानप्रस्थ हो जाता था।

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