Tuesday 23 September 2014

यह समर्पण प्राणों का समर्पण है।

ब्रह्म के चिंतन में लीन ज्ञानी...

अज्ञानी परमात्मा को भेंट भी करे, तो क्या भेंट करे? अज्ञानी न परमात्मा को जानता, न स्वयं को जानता। न उसे उसका पता है, जिसको भेंट करनी है; न उसका पता है, जिसे भेंट करनी है। स्वभावतः, उसे यह भी पता नहीं है कि क्या भेंट करना है।

अज्ञानी जिन चीजों से आसक्त होता है, उन्हीं को परमात्मा को भेंट भी कर आता है। जो उसे प्रीतिकर लगता है, वही वह परमात्मा के चरणों में भी चढ़ाता है। भोग लगता है प्रीतिकर, भोजन लगता है प्रीतिकर, तो परमात्मा के द्वार पर चढ़ा आता है। फूल लगते हैं प्रीतिकर, तो परमात्मा के चरणों में रख आता है। सोचता है, शायद जो उसे प्रीतिकर है, वही परमात्मा को भी प्रीतिकर है।

लेकिन अज्ञान में जो प्रीतिकर है, वह ज्ञान में प्रीतिकर नहीं रह जाता। हमें जो प्रीतिकर है, हमारी स्थिति में जो प्रीतिकर है, उसे परमात्मा के द्वार पर चढ़ाने योग्य समझने की भूल अज्ञान में ही होती है।

कृष्ण कहते हैं इस सूत्र में कि ज्ञानीजन, योगीजन, अपनी इंद्रियों को ही उस परमात्मा की अग्नि में आहुति दे देते हैं।

भस्म में छिपी हुई अग्नि जिस प्रकार दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ब्रह्म के चिंतन में लीन ज्ञानी पहचाने नहीं जा सकते |

हम जब भी परमात्मा को कुछ भेंट करते हैं, तो इंद्रियों के विषयों में से कुछ भेंट करते हैं। इंद्रियां जो चाहती हैं, उसे हम परमात्मा को भेंट करते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन इंद्रियों को ही उसकी अग्नि में आहुति दे देते हैं। भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

फूल लगता है प्रीतिकर; नासापुटों को सुगंध लगती है मधुर; आंखों को रूप लगता है आकर्षक। हम फूल को चढ़ा देते हैं परमात्मा के चरणों पर। ज्ञानीजन सुगंध की इंद्रिय को ही चढ़ा देते हैं, फूल को नहीं। हमें भोजन लगता है प्रीतिकर, स्वाद लगता है मधुर, हम स्वादिष्ट फलों को, मिष्ठानों को परमात्मा के द्वार पर रख देते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन स्वाद को ही–स्वादिष्ट को नहीं–स्वाद को ही उसकी अग्नि में समर्पित कर देते हैं। इंद्रियों को ही। जो प्रीतिकर लगता है, वह नहीं; जिसे प्रीतिकर लगता है, उसे ही समर्पित कर देते हैं।

यह समर्पण प्राणों का समर्पण है। यह समर्पण अपना ही समर्पण है। क्योंकि हम जिसे अब तक जानते हैं स्वयं का होना, वह हमारी इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हम जिसे कहते हैं अपनी अस्मिता, अपना होना, वह हमारी इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और जब कोई अपनी समस्त इंद्रियों को, अपने समस्त जोड़ को परमात्मा को चढ़ा देता, तो पीछे चढ़ाने वाला और जिसको चढ़ाया गया है वह, वे दोनों एक ही हो जाते हैं। क्योंकि पीछे परमात्मा ही बचता है। अगर हम अपनी सारी इंद्रियां परमात्मा को चढ़ा दें, तो हमारे भीतर सिवाय परमात्मा के फिर और कोई भी नहीं बचता है।

इंद्रियों के द्वारा हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियां हमारे उपकरण हैं संसार से संयुक्त होने के। आंख से हम रूप से जुड़ते हैं, आंख से हम प्रकाश से जुड़ते हैं। कान से हम स्वर से, ध्वनि से जुड़ते हैं। ऐसे हमारी पांचों इंद्रियों के द्वार से हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियों से जाएं, तो संसार में पहुंच जाएंगे। इंद्रियों को छोड़कर जाएं, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे। इंद्रियां द्वार हैं संसार की तरफ। अगर इंद्रियों से लौट आएं पीछे, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे।

जो सीढ़ी मकान के नीचे लाती है, वही सीढ़ी मकान के ऊपर भी ले जाती है। जो रास्ता आपको यहां तक ले आया, वही रास्ता आपको वापस आपके घर तक भी ले जाएगा। लेकिन यहां आते समय और घर लौटते समय, रास्ता भी वही होगा, आप भी वही होंगे। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा, आपका रुख, आपका चेहरा बदल जाएगा। इधर आते हुए चेहरा इस तरफ होगा, पीठ घर की तरफ होगी; घर जाते समय चेहरा घर की तरफ होगा, पीठ इस तरफ होगी।

संसार में जाते समय इंद्रियों की तरफ उन्मुख होकर, मुंह करके संसार में जाना पड़ता है। परमात्मा की तरफ, स्वयं की तरफ आते समय, इंद्रियों की तरफ पीठ कर लेनी पड़ती है और लौटना पड़ता है।

इंद्रियां ही द्वार हैं संसार में ले जाने के, इंद्रियां ही द्वार बनती हैं परमात्मा में आने के। इंद्रियां एंट्रेंस हैं संसार में और एक्जिट हैं परमात्मा में।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन अपनी इंद्रियों को ही उसके हवन में, उसके यज्ञ की अग्नि में, उस परमात्मा में समर्पित कर देते हैं। उनका ही होम लगा देते हैं। तब जो पीछे शेष रह जाता है वह, और जिसे होम दिया है वह, दो नहीं रह जाते। फिर यज्ञ करने वाला, यज्ञ, यज्ञ जिसकी प्रार्थना में किया गया वह, सब एक ही हो जाते हैं।

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