Friday 19 September 2014

उस शक्ति का कोई पारावार नहीं।

विज्ञान की यह खोज प्रारम्भिक स्तर की है। अब यह निरन्तर गहराई की ओर बढ़ रही है। कुछ समय पूर्व तक अयन मण्डल को सूर्य से आभासित होने वाले कणों का ही आश्रय मानते थे किन्तु हाल ही में गैलेक्सी के केन्द्रीय क्षेत्र (विशाल नारा) विश्व जिसमें सूर्य जैसे कोई 10 खरब और अब तक सिद्धांतत ज्ञात कुल तारों की संख्या 10&24 (दस घात चौबीस) है। इस विस्तार को गैलेक्सी कहते हैं। इसका अध्ययन करने वाले कुछ प्रमुख ज्योतिषी भौतिकशास्त्रियों (एस्ट्राफिजिसिस्ट्स) ने यह बताया कि इस केन्द्रीय क्षेत्र में कणों का विघटन तेजी से होता है। यह कण जो दिखाई नहीं देते वह अनेक तारों से निकल कर आते हैं और प्लाज्मा के रूप में उनसे अलग होकर पोला दीखने वाले क्षेत्र में अनेक प्रकार के क्षेत्र बनाते हुये फैल जाते हैं। विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र और गुरुत्वाकर्षण जैसी महत्त्वपूर्ण क्रियायें उसी से सम्पन्न होती हैं। यह आयनी करण कृत (आइनोस्फेरिक प्लाज्मा) ही सारे सौर जगत में विचरण करता रहता है। लाखों वर्षों से विचरण करते-करते यह कण भूल गये हैं कि वे कहाँ से आये हैं और इस तरह विभिन्न विचारों प्रक्रियाओं घटनाओं, दृश्यों वाला हलचल पूर्ण जगत आ गया है। यह पदार्थ निरन्तर हलचल में रहता है। ये भूले हुये कण ही कास्मिक किरणों के रूप में पृथ्वी की ओर भी आते रहते हैं। इन कणों में उच्च गति वाले प्रोटान, उन तत्त्वों के परमाणु आदि होते हैं, उनमें बहुत अधिक ऊर्जा होती है। इसलिये वह जैसे ही वायु मण्डल में प्रवेश करते हैं यहाँ की वायु में हलचल पैदा कर देते। उससे फैले हुये वायु शाबरों (एक्सेन्डेट एअर साबर्स) का निर्माण होता है। इस तरह हम देखते हैं कि आकाश जो अनेक गुण, प्रकृति वाले कणों का समुद्र-सा है वही पृथ्वी की स्थूल हलचल का कारण है।
योग ग्रन्थों में जो वर्णन मिलते हैं उनसे पता चलता है कि उन्होंने आकाश तत्त्व का ज्ञान उसी प्रकार प्राप्त किया था जिस तरह आज के वैज्ञानिकों ने परमाणु का। आकाश परमाणु से भी सूक्ष्म है इसलिये उस शक्ति का कोई पारावार नहीं। योग कुंडल्युपनिषद् में षट्चक्रों का वर्णन करते हुये बताया है कि शरीर में आकाश तत्त्व का प्रतिनिधि चक्र विशुद्धास्थ कण्ठ में स्थित है। धूम्रवर्णा का एक तत्त्व उसमें भरा है उसका ध्यान करने से चित-शान्ति त्रिकाल दर्शन, दीर्घ जीवन, तेजस्विता एवं सर्वहित-परायणता का आत्मा में विकास होना है। योग-सूत्र (3-17) में उससे “भूतरुत ज्ञानम्” अर्थात् आकाश की तन्मात्रा पर अधिकार हो जाने पर प्राणिमात्र की भाषा समझ लेने की शक्ति आने का उल्लेख है। यह भाषा चाहे कोई जर्मनी बोले अँगरेजी, उड़िया या तमिल। शब्द का मूल भाव और भावनाओं के स्पन्दन अपनी-अपनी तरह के होते हैं शब्द तो उन्हें केवल व्यक्त करते हैं। आकाश तत्त्व की संसिद्धिं से स्थूल शब्दों को न जानने पर भी उनका अर्थ ज्यों का त्यों समझ लिया जाता है। श्रोत्राकाशयोः संयभाद् दिव्यं श्रोतम् (भवति) योगसूत्र (3-41) में इसी तत्त्व दर्शन का संकेत किया गया है। जिन दिव्य-ध्वनियों को आज तक विज्ञान नहीं पकड़ सका आकाश तत्त्व के वशित्व द्वारा उन्हें भारतीय योगियों ने करोड़ों वर्ष पूर्व ही जान लिया था। दूर से दूर की आवाज को भी वे परस्पर वार्तालाप की तरह सुन सकते थे। यह सब आकाश स्थित ज्ञानवाहक सूत्रों का मनुष्य-शरीर स्थित ज्ञानवाहक सूत्रों में परस्पर सम्बन्ध के द्वारा हो सम्भव होता था। ऐसे अनेक तन्मात्रा वाले परमाणु आकाश में भरे पड़े हैं उनका ज्ञान अब वैज्ञानिकों को भी हो चला है।

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