Monday 22 September 2014

अभी भोग देखे नहीं, तो त्याग में क्या अर्थ हो सकता है!

इसलिए नचिकेता की अति गुरु—गंभीर खोज भारतीय मन के लिए चिंता का विषय नहीं है। पश्चिम के विचारक जरूर चिंतित होंगे कि इतना छोटा—सा बच्चा ऐसे प्रश्न कैसे उठा सकता है? क्योंकि ईसाइयत और इस्लाम और यहूदी धर्म, तीनों धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए हैं—शेष सारे महत्वपूर्ण धर्म भारत में पैदा हुए है—ये तीनों धर्म मानते हैं एक ही जन्म है, एक ही मृत्यु है, उसके बाद कोई पुनर्आगमन नहीं है। इसलिए उनकी धारणा में बच्चे तो ऐसे प्रश्न उठा ही नहीं सकते। और बच्चा इतनी गहन चिंतन। भी नहीं कर सकता। उनकी समझ में तो ऐसे चिंतनपूर्ण विचार वृद्धावस्था में ही संभव हैं।

लेकिन नचिकेता सिर्फ कथा नहीं है। और भी हजारों बच्चों ने ऐसे प्रमाण दिए हैं। पश्चिम में भी ऐसे बहुत से प्रमाण हैं।

पश्चिम का बहुत बड़ा संगीतज्ञ मोजर्ट सात वर्ष की उम्र में वैसे संगीत में कुशल हो गया, जैसा व्यक्ति सत्तर वर्ष की उम्र में भी नहीं हो पाता। चौंकाने वाली बात है। क्योंकि जिस संगीत के अभ्यास के लिए सत्तर वर्ष चाहिए, वह संगीत का अभ्यास सात वर्ष में हो कैसे सकता है? और मोजर्ट तीन साल की उम्र में महान संगीतज्ञ होने की संभावना प्रगट करने लगा। निश्चित ही पीछे यात्रा होनी चाहिए। पीछे के अनुभव चाहे स्मरण न हों, पीछे की संपदा चाहे उसका बोध न हो, मोजर्ट के साथ है।

दो वर्ष की उम्र तक में बच्चों ने ऐसे प्रमाण दिए हैं हजारों, जो सिवाय पिछले जन्म की धारणा के अतिरिक्त और किसी तरह से समझाए ही नहीं जा सकते। नचिकेता अनूठा नहीं है। नचिकेता ने जो पूछा है वह इस बात की खबर है कि यह खोज बहुत पुरानी है और यह बच्चा बहुत बूढ़ा है।

लाओत्से के संबंध में कथा है कि लाओत्से बूढ़ा ही पैदा हुआ था। यह नचिकेता भी ऐसा ही बूढ़ा है। इसकी खोज पीछे से जुड़ी है। यह जो पूछ रहा है, इसे खुद भी पता नहीं है कि क्या पूछ रहा है। लेकिन इसने बहुत बार, बहुत—बहुत जन्मों में यह पूछा है, बहुत—बहुत द्वार इसने खटखटाए हैं। बहुत—बहुत गुरुओं के

चरणों में यह बैठा है। यह धारा जो आज प्रगट होकर दिखाई पड़ रही है, भू—गर्भ में बहती रही है।

इस बात को खयाल में ले लें, तो ही नचिकेता के प्रश्न समझने योग्य लगेंगे, अन्यथा अस्वाभाविक मालूम पड़ते हैं। अन्यथा ऐसा लगता है कि नचिकेता के नाम पर ऋषि वे सारी बातें थोप रहा है जो कि वृद्ध भी नहीं पूछते। लेकिन और बच्चों ने भी ऐसा ही पूछा है।

शंकराचार्य तैंतीस वर्ष की उम्र में तो चल ही बसे। तैंतीस वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्म—सूत्र, उपनिषद और गीता पर अपनी महान व्याख्याएं पूरी कर लीं। तीन सौ वर्ष की उम्र भी किसी आदमी को मिले, तो भी शंकर का कोई मुकाबला नहीं है। शंकर ने जो तैंतीस वर्ष की उम्र में लिखा है, वह तीन सौ वर्ष की उम्र भी साधारणत: मिले तो भी लिखने की कोई संभावना नहीं है।

शंकर ने अपनी व्याख्या का सिलसिला सत्रह साल की उम्र में शुरू किया। और शंकर ने नौ वर्ष की उम्र में संन्यस्त होने की कामना प्रगट की।

यह जो नौ वर्ष की उम्र में… नौ वर्ष की उम्र ही क्या है! हम तो नब्बे वर्ष की उम्र में भी बचकाने बने रहते हैं। हमारे चित्त की कोई प्रौढ़ता नहीं हो पाती। वृद्धावस्था में भी हमारा चित्त वैसा ही होता है जैसा नासमझ अज्ञानी का होना चाहिए।

शंकर के नौ वर्ष की उम्र में संन्यस्त होने की धारणा का उदय, जब अभी जीवन देखा नहीं! तो जिस जीवन को अभी देखा नहीं है, उससे मुक्त होने का सवाल भी कहौ उठता है! अभी दुख जाना नहीं, तो दुख से छुटकारे की बात ही क्या अर्थ रखती है! अभी भोग देखे नहीं, तो त्याग में क्या अर्थ हो सकता है!

निश्चित ही भोग बहुत बार देखे गए हैं। बहुत बार देखे गए भोगों का ही यह सार निष्कर्ष है कि नौ वर्ष का बच्चा संन्यस्त हो जाना चाहता है।
तो नचिकेता पूछ रहा है, आत्मा की उम्र से। उसकी मानसिक—उम्र भी बड़ी प्रगाढ़ रही होगी। क्योंकि वह जो सवाल उठा रहा है, वे खबर देते हैं इस बात की कि उसके सवाल गहन अनुभव से निकले हुए हैं।

बूढ़ों को देखें, बच्चों को देखें। बच्चों में जरूर कभी कोई बूढ़ा मिल जाएगा। और को में तो अक्सर बहुत से बच्चे मिलेंगे। फर्क हो जाते हैं उम्र के साथ, पर फर्क ऊपरी हैं। छोटे बच्चे, छोटे लड़के और लड़कियां अपने गुड्डे—गुड्डियों का विवाह कर रहे हैं; बड़े—बूढ़े रामलीला कर रहे हैं! रामचंद्र जी बनाए हैं, सीताजी बनाई हैं, विवाह हो रहा है, जुलूस निकल रहा है। मन की उम्र नहीं बढ़ी। मन की उम्र वही की वही है। गुड्डे—गुड्डी थोड़े बड़े हो गए हैं, उनका नाम राम—सीता रख लिया है। लेकिन विवाह करने का गुड्डे—गुड्डियों का मजा वही है। जुलूस निकल रहा है। शोभायात्राए हो रही हैं। अभी तो सारे मुल्क में हो रही हैं। अभी तो दिन हैं बूढ़े बच्चों के! शादी का मजा ले रहे हैं! शादी करवाने का मजा ले रहे हैं! बारात में सम्मिलित हो रहे हैं!

निश्चित ही के जब बच्चों जैसा काम करते हैं तो उसको रेशनलाइज करते हैं, उसके आसपास तर्क बिठाते हैं। नहीं तो उनको अपने बूढेपन पर शर्म मालूम होगी। उनको बेचैनी लगेगी।

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