Saturday 20 September 2014

परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।

शास्त्रों में कुण्डलिनी को अनेक शक्तियों का प्राण कहा है। सुषुप्त पड़ी कुण्डलिनी को जागृत कर लेने वाला इस लोक के अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी वन जाता है। भारतवर्ष में इस विद्या की शोध की गई है। कुण्डलिनी शक्ति की कोई सीमा और थाह नहीं है।
किन्तु कुण्डलिनी जागृत कर लेना जीव का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। जीव का अन्तिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति या ब्रह्म निर्वाण। अपने आपको ब्रह्म की सायुज्यता में पहुँचा देना ही मनुष्य देह धारण करने का उद्देश्य है अनेक साधन और योग उसी के लिये बने हैं। कुण्डलिनी का भी वही उद्देश्य है उस पर अपनी टिप्पणी करते हुए योग प्रदीपिका में लिखा है-
उद्घाटयेत्कपार्ट तु यथा कुँचिकया हठात्।
कुँडलिन्या तथा योगी मोक्ष द्वारं विभेदयेत्॥

अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने बल से द्वार पर लगी हुई अगँला आदि को ताली से खोलता है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के अभ्यास द्वारा सुषुम्ना के मार्ग का भेदन करता है और ब्रह्म-लोक में पहुँच कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
शिर के मध्य से (ब्रह्मरंध्र) में 1 हजार पंखुड़ियों का कमल है उसे ही सहस्रार चक्र कहते हैं उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है यहीं आकर कुण्डलिनी शिव से मिल गई है। इसे आत्मा का स्थान, सूत्रात्मा धाम आदि कहते हैं। यहीं से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे में बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति दे-देकर कठपुतलियों को नचाया करता है। विराट् ब्रह्माण्ड में हलचल पैदा करने वाली सूत्र शक्ति और विभाग इस सहस्रार कमल के आसपास फैल पड़े हैं। यहीं अमृत पान का सुख, विश्व-दर्शन संचालन की शक्ति और समाधि का आनन्द मिलता है। यहाँ तक पहुँचना बड़ा कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव ऐश्वर्य और सौंदर्यवान युवती पत्नियों का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छः चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानना, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियाँ पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।
सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतम लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।
सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अन्दर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में “महाविवर” नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुँज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे “दशम द्वार” या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। 

No comments:

Post a Comment