Tuesday 23 September 2014

यह शब्द बड़ा अनूठा है

सिर्फ भारत ने एक अनूठा प्रयोग किया था कि इसके पहले कि भीड़ पकड़ ले और आदमी बाहर की तरफ बहने लगे, हम उसे गुरुकुल भेज देते थे, ताकि वह उन लोगों के सान्निध्य में बैठ जाए जो भीतर की तरफ बह रहे हैं। उस हवा में वह भी भीतर की तरफ बह पाए। और थोड़ा—सा उसे बोध हो जाए, थोड़ा संगीत सुनाई पड़ने लगे, थोड़ो भीतर की वीणा बज उठे, फिर हम उसे संसार में भेज देते थे, निर्भीक।

हमने इस देश में जीवन के चार चरण किए थे। पहले चरण को हमने ब्रह्मचर्य कहा था। यह शब्द बड़ा अनूठा है। इस शब्द का अर्थ है—ईश्वर जैसी चर्या। ब्रह्म जैसी चर्या। ब्रह्म जैसा आचरण। यह शब्द उतना छोटा नहीं है जैसा कि लोगों ने इसे मान रखा है। लोग तो समझते हैं कि शायद वीर्य का निरोध ब्रह्मचर्य है। यह बड़ी क्षुद्र व्याख्या है। वीर्य का निरोध तो सहज हो जाता है। लेकिन ईश्वर जैसी चर्या अगर हो, तो वीर्य का निरोध तो छाया की भांति पीछे चला आता है। वह कोई मौलिक, वह कोई आधारभूत बात नहीं है। वह तो जो बाहर की तरफ दौड़ रहा है, उसका ही वीर्य भी बाहर की तरफ दौडता है। जो भीतर की तरफ चलने लगा, उसके वीर्य की गति भी अंतर्मुखी हो जाती है।

ईश्वर जैसी चर्या का अर्थ है—जिसकी जीवन—चेतना भीतर, और भीतर, और भीतर की तरफ जा रही है। केंद्र की तरफ जाती हुई चेतना का नाम ब्रह्मचर्य है। अपने से बाहर जाती चेतना का नाम अब्रह्मचर्य है। दूसरे की तरफ जाती हुई चेतना का नाम कामवासना है। अपनी तरफ जाती हुई चेतना का नाम ब्रह्मचर्य है। पच्चीस वर्ष के लिए हम युवकों को भेज देते थे गुरुकुल में, ताकि वे भीतर की तरफ बहना सीखें। इसके पहले कि संसार का स्वाद उन्हें आए वे परमात्मा का थोड़ा—सा स्वाद ले लें। फिर कोई डर नहीं है। फिर संसार उन्हें कभी भी भुला न सकेगा। फिर वह याद बनी ही रहेगी। फिर वह भीतर की पुकार जारी ही रहेगी। फिर भीतर कोई धुन बजती ही रहेगी। और धन फिर कितनी ही आवाज करे, उस भीतर की आवाज को दबाना मुश्किल होगा।

स्त्रियां पुरुषों को कितना ही आकर्षित करें, या पुरुष स्त्रियों को कितना ही आकर्षित करें, वह आकर्षण फीका ही रहेगा। जिसने एक बार भी भीतर के पुरुष या भीतर की स्त्री का दर्शन कर लिया, उसके लिए बाहर फिर छायाएं हैं, फिर बाहर तस्वीरें हैं, फिर बाहर कुछ भी वास्तविक नहीं है। फिर कोई आकर्षण बाहर नहीं है। फिर कोई खींच नहीं सकता। तब हम मानते थे व्यक्ति को इस योग्य कि वह अब संसार में जाए।

बड़ी अजीब बात है। संसार के बाहर का अनुभव ले-ले, फिर संसार में जाए। प्रयोजन कीमती था। फिर कोई संसार में जाता था तो भी संसार उसके भीतर नहीं पहुंच पाता था। जिसने भीतर की थोड़ी—सी भी समझ पैदा कर ली, वह संसार से फिर अछूता निकल जाता था। वह चलता था इस नदी में, लेकिन उसके पैरों में पानी नहीं छूता था। फिर वह गुजरता था इन्हीं सब जगहों से, जहां से आप गुजरते हैं, लेकिन वह गुजर जाता था एक मेहमान की तरह। यह घर उसके लिए धर्मशाला ही होता था। यह परिवार उसके लिए एक नाटक से ज्यादा मूल्य नहीं रखता था। जो भी जरूरी था, वह करता था। लेकिन कोई भी ऐसी वासना नहीं थी जो विक्षिप्तता बन जाए।

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