Thursday 25 September 2014

जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन।

दृढ़ आसन, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा-साधना की पूर्व शर्तें हैं। बैठने का आसन दृढ़ होना चाहिए। भले ही वह सुखासन ही हो। तीन आसन साधना के लिए उपयोगी एवं व्यवहार्य है-सुखासन, पद्मासन और सिद्धासन। इनमें से जो भी आसन आपको सुगम लगे, आरामदायक लगे उसे ही अपनाना चाहिए। आसन वहीं स्वीकार्य है जिसमें बैठकर आप तकलीफ महसूस न करें। आसन तीनों में से जो चाहे अपना लें पर एक घंटा की लगातार बैठक का अभ्यास होना जरूरी है। एक घंटा की लगातार बैठक आप बिना किसी कष्ट के कर लेते हैं, इतना अभ्यास परम आवश्यक है।
शरीर को साधने के लिए दूसरी आवश्यकता है-संयमित आहार की। आयुर्वेद में अच्छे स्वास्थ्य के लिए तीन शर्तें बताई है आहार की 1. हितभुक् 2. मितभुक 3. ऋतुभुक। वही खाया जाए तो शरीर के अनुकूल हो। शरीर की अपनी अपनी प्रकृति है। अनुसंधान कर जान लें कि मेरे शरीर को कौन-कौन सी खाद्य सामग्री अनुकूल पड़ती है। जो अनुकूल खाद्य सामग्री है उसी का प्रयोग किया जाए। बीच-बीच में उपवास भी किए जाए। अधिक आहार से मल संचित होते हैं। जिसके शरीर में मल संचित होते हैं, उसका नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रहता और मन भी निर्मल नहीं रहता। दुःखदायी एवं उटपटांग स्वप्न उसी रात को ज्यादा आते हैं जिस रात आपने जरूरत से ज्यादा खा लिया है या फिर आप प्रकोष्ठ बद्धता के शिकार हैं। ज्ञान और क्रिया, इन दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम नाड़ी संस्थान है। मलों के संचित होने पर ज्ञान और क्रिया दोनों में अवरोध पैदा हो जाता है। फेफड़ों व आंतों को राहत देने के लिए भूख से कम भोजन उपादेयी होता है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उपवास, मित भोजन और रस परित्याग सुझाए गए हैं।
ऋतुभुक का अर्थ है - खरी कमाई (कमाई) की रोटी खाई जाए। कुटिल तरीकों से अर्जित खाद्यान का उपयोग न किया जाए। जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन। शरीर साधना की तीसरी आवश्यकता है - नींद पर काबू। नींद पर नियंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि नींद ही न ली जाए। जितनी देर साधना क्रम अपनाया जाए, हम पूर्ण जागरूक रहें। हमारा रोम रोम पूर्ण जाग्रत रहे। पूर्ण चैतन्य रहें। आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं। उस निर्जन बीहड़ जंगल में आप छोटी सी आहट से ही चौंक जाते हैं उसके प्रति सजग हो जाते हो। ऐसी ही चैतन्या जरूरी है। आसन दृढ़, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा प्रारम्भिक तैयारी है।
हमारा दूसरा आधार है 

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