Thursday 11 September 2014

समस्या तो यही है कि हम की सुनना ही नहीं चाहते

जब बुद्धि कार्य नहीं करती; समर्पण कर देती है तो आत्म-तत्व चेतन हो जाता है और अब वह सारे उत्तर मिलेंगे, जो खोज रहे हैं। समस्या तो यही है कि हम "आत्मा" की सुनना ही नहीं चाहते। हमें उचित मार्ग पर तो वही ले जा सकता है जो उनका ही अंश हो। हम सबको आनन्द की खोज है क्योंकि परम चेतन का अंश होने के कारण आनन्द ही हमारा मूल स्वभाव है। अन्तर्चक्षु न खुलने के कारण हम उस आनन्द को लौकिक जगत में खोजते हैं किन्तु लौकिक जगत का आनन्द प्रतिक्षण वर्द्धमान न होकर प्रतिक्षण न्यून होता जाता है और हम कभी भी अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं हो पाते। जबकि इस लौकिक आनन्द की प्राप्ति के लिये हम बहुधा अनुचित मार्गों का अनुसरण करने में भी नहीं हिचकते और उस "सुख" को भोगने के बाद स्वयं को बड़ी भारी ग्लानि और पश्चाताप भी होता है और हमारी "गठरी" भारी होती चली जाती है। अब इस गठरी से छूटकारा पाना है परन्तु यह काँधे से चिपक गयी है मानो। अरे ! कोई है, जो सहायता करे ! समर्पण की यह करुण पुकार हमारी आत्मा पर जमी माया की कालिमा को कुछ कम कर देती है। कहाँ जायें ? कहीं मत जाओ। कौन उनसे मिला देगा ? तुम स्वयं मिल सकते हो। किस मार्ग का अनुसरण करें ? किसी का भी जो तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल हो, सारे मार्ग तुम्हें वहीं ले जायेंगे। लक्ष्य एक ही है, सारे मार्ग वहीं जाते हैं। किसको गुरु बनावें ? जब तुम्हें आवश्यकता होगी, वह परम चेतन स्वयं तुम्हारे पास उन्हें भेजेंगे अथवा तुम्हें बुला भेजेंगे। गुरु को कैसे पहिचानें ? गुरु को कैसे पहिचानोगे ? इसकी चिन्ता न करो, गुरु तुम्हें पहिचानते हैं। गुरु को कैसे जानें ? गुरु को कैसे जानोगे ? जान लिया तो फ़िर तुम ही उसके गुरु हो गये। जो जना दे, वह गुरु; तुमने जब गुरु को ही जान लिया तो अब शिष्य न बन सकोगे। बने तो श्रद्धा न होने से पूर्ण लाभ न ले सकोगे। क्या उन्होंने पाया है ? यह जानकर क्या करोगे ? "न" कहने से तुम्हारी ललक कम हो जायेगी और "हाँ" कहने से तुम्हें कौन सा विश्वास हो जायेगा ? कालेज में पढ़ाने वाला एक "प्रोफ़ेसर" बहुत से विद्यार्थीयों को "डाँक्टर-ईंजीनियर" बना देता है परन्तु स्वयं नहीं होता अत: इस बात से तुम्हें क्या लेना-देना परन्तु यह सत्य है कि डाँक्टर तुम्हें डाँक्टर न बना सकेगा, यह उसके वश की बात नहीं; प्रैक्टिकल भी सिखा देगा परन्तु तब भी प्रोफ़ेसर से पढ़े बिना "डाँक्टर" की डिग्री न पा सकोगे। आश्चर्य की बात है न कि जो स्वयं डाँक्टर नहीं है, वही डाँक्टर बनाता है और यही गुरु की महिमा है कि वह स्वयं भी बन सकता है और बना भी सकता है परन्तु वह बनाने का मार्ग चुनते हैं। बड़ी भारी दुविधा है तो गुरु किसको बनावें ? इस कलियुग में सच्चा गुरु कैसे मिले ? हाँ, यह बात बड़ी कचोटती है कि "शीशमहल" में कहाँ "हीरा" है; इसे खोजना बड़ा ही दुष्कर कार्य है। बाजार, हीरे जैसे दिखने वाले काँच के बेहद खूबसुरत टुकड़ों से अटा पड़ा है और चुनिंदा हीरे खदानों में हैं। उनकी चाह भी नहीं कि संसार में वह सराहे जायें। 

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