Saturday 20 September 2014

तो फिर दो बातें नहीं रह जातीं

अगर कोई आदमी निरंतर अहंकार में ही जीया है, तो उसकी। प्रतीति और होगी। और कोई आदमी निरंतर निरहंकार में जीया है, तो उसकी प्रतीति और होगी। वह प्रतीति अहंकार के अस्तित्व पर निर्भर करेगी, घटना के अस्तित्व पर नहीं। घटना तो एक ही है। घटना एक ही है। वे घटनाएं दो नहीं हैं। लेकिन हम तो अहंकार में ही जीते हैं। इसलिए साधारणत: जब जीवन सिकुड़ना शुरू होता है, अस्तित्व जब डूबना शुरू होता है, तो हमें ऐसा ही लगता है.।

बूढ़े आदमी कहते हुए सुने जाते हैं कि अब जीने की कोई इच्छा न रही। अब जीना नहीं चाहते। अब तो मौत ही आ जाए तो अच्छा है। लेकिन अभी भी वे यह कह रहे हैं कि अब जीने की कोई इच्छा न रही, जैसे कि अपनी इच्छा से अब तक जीते थे। लेकिन सब चीजों को अपने से बांधकर देखा है, तो इसको भी अपने से ही बांधकर वे देखेंगे।

हमारी स्थिति करीब—करीब ऐसी ही है। मैने सुना है कि जगन्नाथ की रथ—यात्रा चल रही है। हजारों लोग रथ को नमस्कार कर रहे हैं। एक कुत्ता भी रथ के आगे हो लिया। उस कुत्ते की अकड़ देखते ही बनती है। ठीक कारण है। सभी उसको नमस्कार कर रहे है! जो भी सामने आता है, एकदम चरणों में गिर जाता है। सामने जो भी आ जाता है, चरणों में गिर जाता है। उस कुत्ते की अकड़ बढ़ती चली जा रही है। फिर पीछे लौटकर देखता है, तो पता चलता है कि सामने ही नहीं स्वागत हो रहा है, पीछे भी रथ चल रहा है। स्वभावत: जिस कुत्ते का इतना स्वागत हो रहा हो, उसके पीछे रथ चलना ही चाहिए। यह रथ कुत्ते के पीछे चल रहा है! ये लोग कुत्ते को नमस्कार कर रहे है।

हमारा अहंकार करीब—करीब जीवन की घटनाओं और पीछे अव्यक्त के चलने वाले रथ के बीच में, कुत्ते की हालत में होता है। सब नमस्कार इस मै को होते हैं; सब पीछे से घटने वाली घटनाएं इस मै को होती है। लेकिन कौन इस कुत्ते को समझाए? कैसे समझाए?

इस पर निर्भर करेगा कि आपने पूरे जीवन को कैसे लिया है। जब आपको भूख लगी है, तब आपने सोचा है कि मैं भूख लगा रहा हूं या अव्यक्त से भूख आ रही है! जब आप बच्चे से जवान हो गए है, तो आपने समझा कि मैं जवान हो गया हूं या अव्यक्त से जवानी आ रही है!

यह इंटरप्रिटेशन की बात है, यह व्याख्या की बात है। घटना तो वही है, जो हो रही है, वही हो रही है। लेकिन कुत्ता अपनी व्याख्या करने को तो स्वतंत्र है। रथ चल रहा है, नमस्कार रथ को की जा रही है, लेकिन कुत्ते को व्याख्या करने से तो नहीं रोक सकते कि नमस्कार मुझे हो रही है, रथ मेरे लिए चल रहा है!

आदमी जो व्याख्या कर रहा है, उसी से सभी कुछ अहंकार— केंद्रित हो जाता है। अन्यथा अहंकार को छोड़े, तो फिर दो बातें नहीं रह जातीं, एक ही बात रह जाती है, क्योंकि हम भी अव्यक्त के ही . हिस्से है। हम अगर अलग होते, तब उपाय भी था; हम भी अव्‍यक्त के ही हिस्से हैं। हम भी जो कर रहे हैं, वह भी अव्यक्त ही कर रहा है। हम भी जो सोच रहे हैं, वह भी अव्यक्त ही सोच रहा है। हम भी जो हो रहे हैं, वह भी अव्यक्त ही हो रहा है।

जिस दिन हमें ऐसा दिखाई पड़ेगा, उस दिन यह सवाल नहीं बनेगा। लेकिन अभी बनेगा, क्योंकि हमें लगता है, कुछ हम कर रहे हैं। कुछ हम कर रहे है, वह मनुष्य की व्याख्या है। उसी व्याख्या में अर्जुन उलझा है, इसलिए पीड़ित और परेज्ञान है। वह यह कह रहा है कि मै मारूं! इन सबको मैं काट डालूं! नहीं, ये सब मेरे हैं, मैं यह न करूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं। लेकिन भागना भी वही करेगा, मारना भी वही करेगा। वह कर्ता को नहीं छोड़ पाएगा, वह मैं की व्याख्या नहीं छोड़ पा रहा है।

कृष्ण अगर कुछ भी कह रहे हैं, तो इतना ही कह रहे हैं कि तू जो व्याख्या कर रहा है मैं के केंद्र से, वह केंद्र ही झूठा है, वह केंद्र कहीं है ही नहीं। उस केंद्र के ऊपर तू जो सब समर्पित कर रहा है, वहीं तेरी भूल हुई जा रही है।

लेकिन हमें सब चीजें दो में टूटी हुई दिखाई पड़ती हैं। यह श्वास मेरे भीतर आती है, फिर दूसरी श्वास बाहर जाती है। ये दो श्वासें नहीं हैं, एक श्वास है। कोई पूछ सकता है कि मै श्वास को बाहर निकालता हूं? इसलिए मुझे श्वास भीतर लेनी पड़ती है? या चूंकि मैं श्वास भीतर लेता हूं, इसलिए मुझे श्वास बाहर निकालनी पड़ती है? तो हम कहेंगे, भीतर आना और बाहर जाना एक ही श्वास के डोलने का फर्क है। एक ही श्वास है; वही भीतर आती है, वही बाहर जाती है।

असल में बाहर और भीतर भी दो चीजें नहीं है अव्यक्त में। बाहर और भीतर भी अव्यक्त में—बाहर और भीतर भी अव्यक्त में—एक ही चीज के दो छोर हैं। लेकिन जहां हम जी रहे हैं, मैनिफेस्टेड जगत में, व्यक्त में, जहां सब अनेक हो गया है, वहां सब भिन्न है, वहा सब अलग है। फिर उस अलग से हमारे सब सवाल उठते है।

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